मनुष्य की इच्छा उसकी सोच पर निर्भर करती
है । वह चाहता है कि अपनी
अभिव्यक्ति को कोई न कोई विधि से व्यक्त करें । इसी बात का यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जाकर अवलोकन किया
जाये तो हमें आदिमानव कि कला भीमबेटका, पंचमढ़ी, होशंगाबाद के शैलचित्रों को देखना
अति आवश्यक हो जाता है । हम प्राचीन काल से ही
पढ़ते आ रहे हैं कि मनुष्य बंदरों का परिष्कृत स्वरुप है और यह विद्वानों द्वारा
नृविज्ञान (Anthropology) के विस्तृत अध्ययन और शोधों से पता चल चूका है । हम इस आलेख में उन मानव जाति के एक विशेष वर्ग कि बात
करेंगे कि वे कंदराओं में तथा जंगलों में अपना जीवन यापन करने वाले आज आदिवासी
जाति के नाम से जाने जाते हैं ।
आदिवासी
एक जंगलों में निवास करनेवाली एक समाज है जो वाणिज्य से कोसो दूर अपनी सहजता से आज
तक जीवित है और अपनी अभिव्यक्ति को हमारे सामने कलात्मक अभिव्यक्ति कर अपने क्षेत्र
का पहचान दिला रहा है । आदिवासी लोग आज कला को
शास्त्रीय तो नहीं परन्तु रूढ़िवादी परम्परा के तहत पहचान दिलाने में अग्रसर हैं जिसे
हम जनजातीय कला या आदिवासी कला कहते हैं ।
जनजातीय कला का अर्थ
विश्व के विभिन्न भागों में निवास करने वाली आदिवासी वन्य जन-जातियों द्वारा
रची गयी कला को 'जन-जातीय कला कहा जाता है। प्रायः नीग्रो अफ्रीकी मूर्तिकला, अमरीकी वन जातियों तथा विश्व के अन्य भागों में निवास करने वाली जन-जातियों के द्वारा रची गयी कला को 'आदिवासी कला' या 'जन-जातीय कलायें
कहा जाता है। विश्व के इन सुदूर स्थित विभिन्न भागों की निवासी जन जातियों के द्वारा रची जाने पर भी इन कलाओं में मूलभूत एकता दिखाई देती है, जो अत्यन्त
चौंकाने वाली है। उदाहरणस्वरूप- इनके कलाओं में ज्यामितिक आलेखन और चित्रों में प्राकृतिक प्रतिरूपण आदिवासी कला के सार्वभौमिक स्वरुप हैं। अतः कलात्मक अंकन निपुणता की दृष्टि से यह जन-जातीय कलायें
अति विलक्षण मालूम पड़ती हैं जिसे देखने पर उनकी अभिव्यक्ति एक सौन्दर्यात्मकता स्थापित
करती है ।
प्राकृतिक जिंदगी और शहरी सभ्यता से दूर वनों में निवास करते हुए भी कला की दृष्टि से जन-जातियाँ
अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन जन-जातियों
ने अपने पर्यावरण तथा भौगोलिक स्थितियों से प्रेरणा ग्रहण की है। इसी कारण आदिवासी कला की रचनात्मकता में प्रकृति
प्रदत्त सामग्रियों को ही कला-निर्मिति के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। जैसे- लकड़ी, बाँस, पशु-चर्म, मिट्टी, पत्थर, खनिज पदार्थ, धातु इत्यादि । एक निश्चित
परिवेश में सीमित रहने के कारण भौगोलिक
तत्त्व भी इन्हें सदैव ही प्रभावित करते रहे हैं।
इनकी अपनी ही एक संस्कृति,
अपना समुदाय और अपने ही कानून-व्यवस्थायें और नियम होते हैं। इनके जीवन में कम से कम आवश्यकतायें रहती हैं, जिसकी पूर्ति अधिकांशतः जंगलों की संपदा के उपयोग से हो जाती है। इन्हीं प्रवृत्तियों पर आधारित उनके उद्योग, कलात्मक उपकरण व कलात्मक वस्तुएँ
व यंत्रों का विकास हुआ है। इनके रीति-रिवाज व परम्परायें भी इसी वातावरण की ही देन हैं। सामूहिक स्तर पर रची जाने के कारण ही प्रत्येक देश की आदिवासी कला में हम उसकी जातीय विरासत को सुरक्षित पाते हैं। उदाहरणार्थ- भारतीय जन जातीय कला में 'वृक्षिका' (Woman and Tree motif) चिह्न की प्रचुरता, जो नारी और मानवेतर प्रकृति
के साहचर्य को निरूपित करती है। इसी प्रकार चीनी आदिवासी कला में हम 'घस्मर कथा रूढ़ि (Glutton
Motif) जिसका सम्बन्ध चन्द्रमा के गति-चक्र से है की और स्पेनिश जन जातीय कला में "नर-वृषभ-युद्ध" की प्रचुरता पाते हैं। स्पेन की यह नर-वृषभ-युद्ध कथा-रूढ़ि वहाँ के आदिम समाज के धार्मिक अनुष्ठान से व्युत्पन्न हुई है। आदिम समाज की इसी कथा रूढ़ि को पिकासो (आधुनिक
स्पेनिश चित्रकार) ने 'ग्वेर्निका' नामक अपने प्रसिद्ध चित्र में परिवर्तित सन्दर्भ में रूपायित किया है।
इसी प्रकार विश्व के विभिन्न प्रान्तों में पाई जाने वाली इन आदिवासी संस्कृतियों में काफी समानता भी है। फ्रांस
व स्पेन के गुफा चित्रों
की शैली और उपकरणों से प्राप्त चित्रों और रूपाकारों तथा राजस्थान के आदिवासियों में प्राप्त
रूपाकारों की समानता देखी जा सकती है। 'माले-प्रायः द्वीप' के कंधी पर बने आकारों की समानता "अफ्रीका
के "काष्ठ- मुखावरण" में बने आकारों से की जा सकती है। उत्तर अमेरिका के "डाकोटा" भारतीयों में प्रचलित मोर के आकार से भिन्न नहीं हैं। विश्व की अन्य आदिम जातियों "एस्किमो" व "पोटावाटोभियो (उत्तर अमेरिका) आदि में भी दो त्रिभुजों की सहायता से बनाई जाने वाली मानवाकृतियाँ हैं जो भारत के आदिवासियों में भी सर्वत्र देखी जा सकती हैं। "आरिग्नेशियन" संस्कृति के अन्तर्गत बनाये जाने वाले हाथी, घोड़ा, गाय, बकरी या हिरण आदि के आकार हमारे देश के आदिवासियों के घरों, उपकरणों आदि पर भी बनाये जाते हैं।
भारत में अधिकांश जन-जातियाँ उत्तरी
प्रदेशों, जैसे- राजस्थान, असाम, मिजोरम, मणिपुर, मेघालय या मध्यप्रदेश, नागालैण्ड, त्रिपुरा
आदि प्रदेशों में निवास करती हैं। इसके अतिरिक्त गोआ, दमन, लक्षद्वीप में भी जनजातियाँ निवास करती हैं।
विद्वानों के
दृष्टिकोण
ई. आर. लीच के अनुसार, "जन-जातीय लोग कला की वस्तुओं का उपयोग धार्मिक उत्सवों, निजी वस्तुओं की सजावट तथा मृत पूर्वजों की याद में स्मारक इत्यादि बनाने हेतु करते हैं।" इस प्रकार जन-जातीय कला का उद्देश्य धार्मिक तथा धर्म-निरपेक्ष दोनों ही रहा है। साथ ही शुद्ध रूप में कलात्मक भी।
मेलविकि,
जैकब तथा बर्नहर्ट जे. स्टर्न ने अपनी पुस्तक 'जनरल एन्थ्रोपोलॉजी' में जनजातीय कला के निम्न तत्त्व
बताये हैं-
· चित्रकला एवं मूर्तिकला
·
मौखिक साहित्य
सामान्यतः इन जन-जातीय कलाओं में विभिन्न प्रधान कारक तत्व भी साथ ही उपलब्ध रहते हैं-
पौराणिक और आलंकारिक प्रतीक
भौतिकवादी अदृश्य आत्मा पर विश्वास
आनुष्ठानिक दृश्य और रीति-रिवाज
शिल्प
कला का व्यावहारिक ज्ञान
जन-जातीय परिवेश
में सजे रहना
निष्कर्ष
आदिवासी कला उन कलाओं में से है जिसमें मोटी रेखाओं, भद्दे
रंगों, ज्यामितीय आकृतियों तथा पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों आदि का चित्रण प्रचुरता से
देखा जा सकता है | हम आदिवासी कला को एक विशेष वर्ग से जोड़ कर देखते हैं | यह कला
प्राचीन मानव जीवन शैली का अध्ययन करने में तथा उनके कलात्मक दृष्टिकोण को पहचानने
में मदद करता है |
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