किसी भी समाज में मनोरंजन के विभिन्न प्रयोग और
उपाय करना मानव की एक आवश्यक गतिविधि है । इसी व्यवस्था के तहत सामाजिक प्राणी
होने के नाते मनुष्य तरह-तरह कि कलाओं को सीख कर उसका प्रदर्शन करता है । ये सब
कलाएँ उन कलाकारों के मनोरंजन के अलावा आर्थिक मजबूती भी प्रदान करता है जिससे
उसके निजी जीवन के साथ उसके परिवार का भी भरण पोषण आसानी से हो सके । अब बात आती
है कि उसे कैसे सिखा जाये और संगीत शिक्षा को व्यावहारिक के साथ रोजगारपरक भी
बनाया जाय । संगीत शिक्षण एक गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत आनेवाली वह शिक्षा है
जिसे अभ्यास करने में गुरु का रहना अति आवश्यक होता है । अब प्रश्न हमारे सामने यह
उठता नजर आता है कि संगीत क्यों सीखें ? संगीत सीखने का क्या उद्देश्य है ? ये प्रश्न अब निरर्थक प्रतीत होने लगे हैं । परन्तु
इन सभी प्रश्नों के यथार्थता को हम उजागर करेंगे तथा उसे अच्छी तरह से समझ पाएंगे ।
संगीत के लिए गुरुकुल में रहकर, गुरु-मुख से सन्मुख-विद्या प्राप्त करने का मूल
उद्देश्य था आत्मानंद एवं संगीत के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति । आज कितने लोग हैं, जो इस उद्देश्य से संगीत सीखते हैं ! वस्तुतः जो
लोग शौक से, अपनी तृप्ति के लिए ही संगीत सीखना चाहते हैं, उन्हें भी संतोष नहीं मिलता । विद्यालयों में रत
हजारों विद्यार्थियों में से कलाकार, तो इने-गिने ही बनते हैं । इसके लिए मुख्य रूप
से हमारी वर्तमान शिक्षा-नीति जिम्मेदार है । उस नीति का लाभ उठाकर सेवारत
संगीत-शिक्षकों ने भी पाठ्यक्रम को आधार बनाकर, एक रटे-रटाए, बँधे-बँधाए ढाँचे को अपना लिया है। इससे उन्हें
सुविधा हो गई है। इसके तहत वे विद्यार्थियों को निर्धारित रागों व उनमें निबद्ध
रचनाओं को सुगमता से सिखा देते हैं। एक बार चीजें व उनके आलाप-तान तय करके लिख लिए
तो वर्षों तक और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है । शिक्षण संस्थानों में पाठ्यक्रम वर्षों नहीं बदलते तो शिक्षक
क्यों अतिरिक्त परिश्रम करें ! यद्यपि वे चाहें तो पुस्तकों की मदद से ही सही, नए आलाप-तान तो दे ही सकते हैं ।
संगीत शिक्षकों की योग्यताएं
मैं भी संगीत- शिक्षक हूँ । बिरादरी के साथ अपने
को दोषी मानते हुए भी मैं सत्य से दूर नहीं हटना चाहता । हम जिज्ञासु विद्याथियों
को भी सरस व मधुर चीजें न देकर लंबे समय तक अनावश्यक रूप से वही पुरानी घिसी-पिटी
सरगमों में उन्हें उलझाए रखते हैं, जबकि उनका उद्देश्य भीमसेन जोशी बनना नहीं होता
। वे तो कुछ अच्छी रचनाएँ कर भजन इत्यादि सीख लेना चाहते हैं। ऐसे विद्यार्थी
वांछित चीज न मिलने पर संगीत से ही निराश हो जाते हैं ।
महाविद्यालयों के शिक्षकों की स्थिति थोड़ी बेहतर
है । उन्हें वेतन अच्छा मिलता है और मेहनत भी अपेक्षाकृत कम करनी पड़ती है ।
शिक्षक के रूप में तो उनका भी वही हाल है, अर्थात् उनमें से अधिकांश शिक्षक बँधी- बँधाई
पोटली तैयार रखते हैं। उन्हें भी अधिक होम वर्क नहीं करना पड़ता, क्योंकि वर्षों तक पाठ्यक्रम नहीं बदलता । उनकी
स्थिति इसलिए बेहतर है कि पद की दृष्टि से वे समाज में उपेक्षित नहीं हैं । उनको
आए दिन कोई जलसा तैयार नहीं करवाना पड़ता, पीरियड भी कम होते हैं और छुट्टियाँ अधिक ।
पाठ्यक्रमों में संगीत शिक्षा
अच्छे उस्तादों या गुरुओं द्वारा प्राप्त शिक्षा
तथा किताबी शिक्षा में
थोड़ा अंतर होता है । विद्यालयों की शिक्षा पाठ्यक्रम से बँधी होती है, अतः शिक्षक भी कुछ मौलिक नहीं दे पाता । यद्यपि
प्रचलित रागों में इतनी अधिक बंदिशें उपलब्ध हैं कि परिवर्तन के तौर पर निरंतर सरसता
बनाए रखी जा सकती है। कम-से-कम विभिन्न तालों में तो रचनाएँ सिखाई जा ही सकती हैं
! किंतु व्यावहारिक रूप में ऐसा देखने में कम आता है। शिक्षकगण इसके लिए पाठ्यक्रम
को दोषी मानते हैं।
पाठ्यक्रम के संदर्भ में अनेक सुझाव दिए जा सकते
हैं। यथासंभव मैंने कुछ प्रयोग सफलतापूर्वक किए भी हैं। उदाहरण के लिए, रागों का चयन । कई जगह देखा गया है कि बिना
सूझबूझ के, रागों के नाम पाठ्यक्रम में दे दिए जाते हैं । इसी प्रकार अमुक राग में एक
ध्रुपद और अमुक में एक तराना । परीक्षक के लिए भी यह सिर-दर्द हो जाता है कि वह
सभी विद्यार्थियों से उसी एक राग में वही एक सरलतम ध्रुपद सुनता रहे । दसवीं कक्षा
के विद्यार्थी से ध्रुपद की शैली कैसे सुनी जा सकती है ! अधिक-से-अधिक
स्थायी-अंतरे की दुगुन या चौगुन सुन लें । यह तो किसी भी राग के ध्रुपद से पता लग
सकता है । अतः जहाँ संभव हो, शिक्षक को राग व बंदिश-चयन में थोड़ी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए । पाठ्य- क्रम
समिति में भी अधिकांश उन अध्यापकों को रखना चाहिए, जो उस कक्षा-विशेष को पढ़ाते हों । वह बालकों की
ग्राह्य-शक्ति को अधिक पहचानते हैं ।
पाठ्यक्रम से संबंधित दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है
सैद्धांतिक पक्ष की । यह पक्ष इतना जटिल कर दिया गया है कि हमीं नहीं जानते कि हम
विद्यार्थी को संगीतज्ञ बनाना चाहते हैं या पंडित ! मैंने कई राजकीय व
विश्वविद्यालयों के महाविद्यालयों के संगीत के पाठ्यक्रम देखे हैं । उन्हें देखकर
लगता ही नहीं कि हम संगीत- विषय द्वारा संगीतज्ञ बनने की प्रेरणा दे रहे हैं और
उसी की पृष्ठभूमि बना रहे हैं । अव्वल तो पाठ्यक्रम इतना भारी होता है कि परीक्षा
के समय तक वही पूरा नहीं हो पाता । उसमें भी सैद्धांतिक पक्ष में ऐसे-ऐसे जटिल
प्रसंग डाल दिए जाते हैं, जिनका संगीत से कोई सीधा संबंध नहीं होता । एक मृत इतिहास की भाँति कुछ बातों
को बिना समझे, विद्यार्थी रटकर परीक्षा में लिख देते हैं । यदि यह पक्ष लचीला होता तो
विद्यार्थी गाने या बजाने के अभ्यास में अधिक समय दे पाता । इससे उसे भविष्य में
भी लाभ मिलता । इस प्रकार के अव्यावहारिक पाठ्यक्रम का कोई औचित्य मुझे तो नजर नहीं आता। संगीतज्ञ या पंडित बनने
की स्वतंत्रता, अंक-विभाजन की योजना में परिवर्तन करके भी दी जा सकती है, किंतु इसपर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है ।
संगीत - शिक्षा में व्यावहारिक ज्ञान का पक्ष
अभी भी गोण है। स्नातकोत्तर परीक्षा- उत्तीर्ण ऐसे कई संगीत-शिक्षकों को मैं जानता
हूँ, जिन्हें तानपूरे में तार
लगाना नहीं आता । कई बार उनके अधीनस्थ तबला वादक उनसे अधिक व्यावहारिक ज्ञान रखते
हैं । महा- विद्यालयों तक की शिक्षा इतनी अपूर्ण होती है कि एक स्नातकोत्तर
विद्यार्थी को रामकली का शास्त्रीय ज्ञान तो है, किंतु भैरव से अनभिज्ञ है । जोगकौंस गा रहे हैं, किंतु जोग का पता ही नहीं है । वर्षों से मैं
परीक्षक हूँ, इसलिए ये बातें मैं प्रामाणिक रूप से कह रहा हूँ । इनके लिए शिक्षक इतने दोषी
नहीं हैं, जितनी हमारी शिक्षा-नीति । गुरु-शिष्य-प्रणाली में -
भले ही कोई विधिवत् पाठ्यक्रम निश्चित न -हो, पर उसके विद्यार्थी जब क्षेत्र में उतरते हैं तो
पूरी तरह से दीक्षित होकर । वे सभी विभागों में निष्णात होते हैं ।
रागों के स्वरूप के बारे में रूढ़िवादिता व पारंपरिक
झगड़ों में न पड़कर जो गाया जाए, वह सरस, मनमोहक, सुरीला व लयबद्ध होकर श्रोता को मुग्ध कर ले, ऐसा हो तो अच्छा होगा । राग किसी-न-किसी ओर से
शास्त्र- सम्मत होगा ही, किंतु उसका प्रस्तुतीकरण कर्णप्रिय हो, यह आवश्यक है । इसी से हम शास्त्रीय परंपरा को
अधिक जीवंत व गौरव- मयी बनाए रख सकते हैं । संगीत-नीति में आमूलचूल परिवर्तन करके
उसे अधिक लचीला, किंतु सार्थक बनाने की आवश्यकता है । आशा है, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थान भी इस ओर ध्यान
देंगे ।
निष्कर्ष
संगीत शिक्षा एक व्यावहारिक शिक्षा है जिसे
प्राप्त करने के लिए हमें सैद्धांतिक और प्रायौगिक दोनों पक्षों के तहत अपना ज्ञान
को बढ़ाना पड़ता है तब जाकर एक विद्यार्थी संगीत के महत्वपूर्ण शिक्षा के तौर-तरीकों
से भली-भांति कलाकार कहला पाता है । संगीत में प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक जोशिक्षा
दी जाती है वह नीचे से ऊपर तक एक जैसा ही लगता है, परन्तु संगीत कला के उस्तादों
के नजरिये से इस कला कि मौलिकता को आसानी से समझी जा सकती है । इस कला को सिखने और
सिखाने इन दोनों शब्दों को समझने में ईमानदारी और कठिन परिश्रम कि आवश्यकता होती
है । शिक्षक को सही ज्ञान और अच्छी गुणवत्ता को समय-समय पर परिमार्जित करने कि
आवश्यकता है तथा संगीत में नई शोध और तकनीक को भी विकसित करने में समाज और सरकार
को एक साथ आगे आना होगा तभी इस कला को कला, शिक्षा, तकनीक आदि रूप में सही उदाहरण
दे पाएंगे ।
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