भारतीय कला की विशेषता
मनुष्य की वास्तविक कल्पना
शक्ति ही सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति या यूँ कहें कि मानवीय भावनाओं की सरल
अभिव्यक्ति ही कला है। प्राचीन काल से ही भारतीय कला परम्परा में कहा गया है कि जो
कला परम आनंद प्रदान करती है, वही सच्ची व श्रेष्ठ कला है और वही
कल्याणकारी भी होती है। कला का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार तथा जीवन के
मूल तत्त्व की ओर उन्मुख होना है। यह सही है कि प्राचीन काल से ही भारतीय कला
मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिन्तन की विचारों की अभिव्यक्ति को समर्पित रही है लेकिन
इसके साथ ही उसमें वर्तमान सामाजिक जीवन भी विभिन्न स्तरों पर स्पन्दित हुआ है। इन
सभी बातों का सही आकलन करने पर पता चलता है कि कल्पना की अभिव्यक्ति ही
महत्त्वपूर्ण होती है। यह अभिव्यक्ति रूपि प्रदर्शन भिन्न-भिन्न प्रकार से एवं कई माध्यमों के द्वारा सम्पादित हो सकती है।
यथार्थ रूप से यदि हम वास्तु शिल्प और मूर्ती कला की विवेचना करें तो बौद्ध काल की कला में अजंता, एलोरा, सिगिरिया, बाघ की गुफाओं, खजुराहो मंदिर की कला आज भी लजीव सी लगती है, एलोरा के गुफा शिल्प पर लिखी एलिस बोनर की सूक्ष्म कला दृष्टि पर जाएँगे तो यह भी पाएँगे कि यह एलिस ही थी जिसने एलोरा की गुफाओं के अर्थ संकेतों को पकड़ते प्रतिमाओं के अन्तर्निहित को अपनी दृष्टि दी। इसमें जो बात खासतौर से उभरकर सामने आती है, वह यह है कि बाह्य सौन्दर्य के आकर्षण से प्रभावित होना ही कला की समझ की संपूर्णता नहीं है बल्कि जीवन के आंतरिक भाव को व्यक्त करना कला है।
मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् होना भी अपनी तरह की एक साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है तो उसमें मनोवैज्ञानिक बदलाव हमारे शरीर में तुरंत देखने को मिलता है तथा तत्काल कुछ भाव मन में आते हैं— उसके प्रति । कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करेंगे तो कुछ और सौन्दर्य-भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा। याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कभी ख्यात निबंधकार विद्यानिवास मिश्र को अपना कविता-संग्रह भेंट किया था। उन्होंने कविताएँ पढ़ीं और लिखा, 'कविताएँ घूँट घूँट आस्वाद का विषय हैं। मैं कर रहा हूँ।" माने कविताओं को वह पढ़ ही नहीं रहे थे, मन की आँखों से देख भी रहे थे। इस देखने से ही मन में शायद प्यार जगता है।
स्पेन के प्रख्यात
सिनेकार जोसे लुई गार्सिया की फिल्म 'कैडल सांग' का संवाद है "जो देखना जानता है, वही प्यार कर सकता
है।" चित्र मूर्तियों के अंकन में ही जाएँ। भारत ही नहीं विश्वभर में भगवान
बुद्ध की एक से बढ़कर एक मूर्तियाँ मिल जाएँगी पर बुद्ध क्या वास्तव में मूर्ति
में जैसे हैं, वैसे ही रहे होंगे? आरंभ में बुद्ध की उपस्थिति उनको मूर्ति
से नहीं उनसे जुड़े प्रतीकों से की जानी- बोधिवृक्ष, धर्मचक्र परिवर्तन कराते कर, छत्र, पादुकाएँ और दूसरे
प्रतीक। उनसे ही तथागी उपस्थिति का आभास होता। इन प्रतीकों के आधार पर ही
मूर्तियाँ दर मूर्तियाँ गढ़ी गई। ठीक वैसे ही जैसे राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं
को जिस रूप में बनाया, वही बाद में पूज्य हो गए। उनके बनाए
चित्रों से पृथक् कहीं शिव, कृष्ण, राम दिखते हैं तो वह हमें स्वीकार्य नहीं
माने अपनी दीठ से कलाकार ने जो सिरज दिया, वही सर्वव्यापी हो गया।
अतः हम अपने विचारों
को यदि धर्मं, काम, सौंदर्य की कल्पना से प्रदर्शित करें तो पाएंगे की
कला हमारे जीवन जीने का अनमोल माध्यम है
इसीलिए भारतीय कला की प्रधानता पूरे विश्व में सर्वोपरि है.
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