Bhartiya Kala Ki Visheshta - TECHNO ART EDUCATION

Wednesday, October 5, 2022

Bhartiya Kala Ki Visheshta

 

भारतीय कला की विशेषता

मनुष्य की वास्तविक कल्पना शक्ति ही सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति या यूँ कहें कि मानवीय भावनाओं की सरल अभिव्यक्ति ही कला है। प्राचीन काल से ही भारतीय कला परम्परा में कहा गया है कि जो कला परम आनंद प्रदान करती है, वही सच्ची व श्रेष्ठ कला है और वही कल्याणकारी भी होती है। कला का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार तथा जीवन के मूल तत्त्व की ओर उन्मुख होना है। यह सही है कि प्राचीन काल से ही भारतीय कला मुख्यतः धर्म एवं आध्यात्मिक चिन्तन की विचारों की अभिव्यक्ति को समर्पित रही है लेकिन इसके साथ ही उसमें वर्तमान सामाजिक जीवन भी विभिन्न स्तरों पर स्पन्दित हुआ है। इन सभी बातों का सही आकलन करने पर पता चलता है कि कल्पना की अभिव्यक्ति ही महत्त्वपूर्ण होती है। यह अभिव्यक्ति रूपि प्रदर्शन भिन्न-भिन्न प्रकार से एवं कई  माध्यमों के द्वारा सम्पादित हो सकती है।

 कलाएँ हमारे जीवन में एक जीने की राह दिखाती हैं और मानव कृत्य संस्कृति को संयोजन में विशेष योगदान प्रदान करती हैं I विशेष रूप से चित्रकला की बात करें तो यह कहा जा सकता है कि उसका मूल उद्देश्य संवेदनशील मानवीय चेतना है। इधर जटिलता और दुर्लभता  के दोष से मुक्त होकर आधुनिक कला सृजनशीलता में अत्यधिक समृद्ध हो गयी है। कला की नयी मान्यताओं ने उसमें नयी सम्भावनाओं से इतना भर दिया है कि उलझन के रहते हुए भी निराशा के भाव पैदा नहीं होते। कलाओं को हमारे यहाँ रूप की सृष्टि भी शायद इसीलिए कहा गया है कि वहाँ दृश्य का ही नहीं जो कुछ अदृश्य है, उसका भी अनुकरण करते रूप को उभारा जाता है। पार्कर ने इसीलिए कभी कला को इच्छा के काल्पनिक व्यक्तिकरण की संज्ञा दी थी। और अब तो कला कैनवास तक ही सीमित नहीं रह गयी है, उसके अभिव्यक्ति सरोकार भी बदल गए हैं।


भारतीय कलाएँ दरअसल अतीत
, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि को पुनर्जीवित करती हैं। इन कलाओं को  देखने का संस्कार भी कहीं ठीक से मिलता है तो वह कलाएँ ही हैं। चित्रकला और मूर्तिकला और वास्ती कला की ही बात करें। पाशात्य कलाकरों की बात करें तो हम सर्वप्रथम इटली की मूर्तिकार एलिस बोनर ने कभी ज्यूरिख में नृत्य सम्राट उदयशंकर का नृत्य देखा और बस देखती ही रह गई। यह उनके देखने का संस्कार ही था कि मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों को बाद में उसने अपनी कला में गहरे से जिया। कला का यही तो वह परम सत्य है जिसमें सर्जक जीवन की अपने तई तलाश करता है। एलिस ने यही किया। अपनी अनुभवी दृष्टि से भारतीय कला के रहस्यों में प्रवेश करते उसने चित्रों में मूर्ति में नृत्य में अन्तर्निहित को अपने तई समझा कला को अपनी दीठ दी। उसने संस्कार की दृष्टिगत होने वाली वस्तुओं प्रकृति, मनुष्य, पशु तथा पेड़-पौधों को अपनी कला में मूर्त रूप ही नहीं दिया बल्कि भारतीय नृत्य की भंगिमाओं को आत्मसात करते रेखाओं, रंगों के साथ ही मूर्तियों में उन्हें जिया भी। बाद में वह उत्कल भूमि भी गयी। उड़ीसा में बिखरे शिल्प की तलाश करते ही उसने ताड़पत्रों की अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ खोज निकाली। पण्डितों और शिल्पियों का सहयोग लिया और 12वीं सदी में लिखे गये उड़ीसा के तंत्र युग ग्रंथ 'शिल्प प्रकाश' का अनुवाद भी किया। इस महान पुस्तक में प्राच्य विद्या का अद्भुत संकलन है जो भारतीय योग, तंत्र, मंत्र की व्याख्या को अच्छी तरह से समझाया गया है  तथा प्रतिमा के सिद्धान्त का विधिवत एवं प्रतीकात्मक ज्ञान जैसे विषय भी प्राप्त हुए हैं । एलिस ने भी कहा, "कलाएँ सौन्दर्य आस्वाद के लिए ही नहीं है, उनके जरिए आत्मा को एकाग्रचित्त किया जा सकता है। इसलिए कि वे सत्य हैं। "

यथार्थ रूप से यदि हम वास्तु शिल्प और मूर्ती कला की विवेचना करें तो बौद्ध काल की कला में अजंता, एलोरा, सिगिरिया, बाघ की गुफाओं, खजुराहो मंदिर की कला आज भी लजीव सी लगती है,  एलोरा के गुफा शिल्प पर लिखी एलिस बोनर की सूक्ष्म कला दृष्टि पर जाएँगे तो यह भी पाएँगे कि यह एलिस ही थी जिसने एलोरा की गुफाओं के अर्थ संकेतों को पकड़ते प्रतिमाओं के अन्तर्निहित को अपनी दृष्टि दी। इसमें जो बात खासतौर से उभरकर सामने आती है, वह यह है कि बाह्य सौन्दर्य के आकर्षण से प्रभावित होना ही कला की समझ की संपूर्णता नहीं है बल्कि जीवन के आंतरिक भाव को व्यक्त करना कला है।



मुझे लगता है, कलाओं से साक्षात् होना भी अपनी तरह की एक साधना है। आपने कोई चित्र देखा है, मूर्ति का आस्वाद किया है तो उसमें मनोवैज्ञानिक बदलाव हमारे शरीर में तुरंत देखने को मिलता है तथा तत्काल कुछ भाव मन में आते हैंउसके प्रति । कुछ समय बाद फिर से आस्वाद करेंगे तो कुछ और सौन्दर्य-भाव अलग ढंग से मन में जगेंगे। जितनी बार देखेंगे मन उतना ही मथेगा। याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कभी ख्यात निबंधकार विद्यानिवास मिश्र को अपना कविता-संग्रह भेंट किया था। उन्होंने कविताएँ पढ़ीं और लिखा, 'कविताएँ घूँट घूँट आस्वाद का विषय हैं। मैं कर रहा हूँ।" माने कविताओं को वह पढ़ ही नहीं रहे थे, मन की आँखों से देख भी रहे थे। इस देखने से ही मन में शायद प्यार जगता है।

स्पेन के प्रख्यात सिनेकार जोसे लुई गार्सिया की फिल्म 'कैडल सांग' का संवाद है "जो देखना जानता है, वही प्यार कर सकता है।" चित्र मूर्तियों के अंकन में ही जाएँ। भारत ही नहीं विश्वभर में भगवान बुद्ध की एक से बढ़कर एक मूर्तियाँ मिल जाएँगी पर बुद्ध क्या वास्तव में मूर्ति में जैसे हैं, वैसे ही रहे होंगे? आरंभ में बुद्ध की उपस्थिति उनको मूर्ति से नहीं उनसे जुड़े प्रतीकों से की जानी- बोधिवृक्ष, धर्मचक्र परिवर्तन कराते कर, छत्र, पादुकाएँ और दूसरे प्रतीक। उनसे ही तथागी उपस्थिति का आभास होता। इन प्रतीकों के आधार पर ही मूर्तियाँ दर मूर्तियाँ गढ़ी गई। ठीक वैसे ही जैसे राजा रवि वर्मा ने देवी-देवताओं को जिस रूप में बनाया, वही बाद में पूज्य हो गए। उनके बनाए चित्रों से पृथक् कहीं शिव, कृष्ण, राम दिखते हैं तो वह हमें स्वीकार्य नहीं माने अपनी दीठ से कलाकार ने जो सिरज दिया, वही सर्वव्यापी हो गया।

अतः हम अपने विचारों को यदि धर्मं, काम, सौंदर्य की कल्पना से प्रदर्शित करें तो पाएंगे की कला हमारे जीवन जीने का  अनमोल माध्यम है इसीलिए भारतीय कला की प्रधानता पूरे विश्व में सर्वोपरि है.  

 

No comments:

Post a Comment