भारतीय मुद्राओं का वास्तविक इतिहास
ह्मारा इतिहास इस विश्व में काफी पुराना मन
गया है I जब हम कंदराओं में रहते थे उस समय हमें अपने जीवन के बारे में कोई
अच्छाई-बुराई का पता नहीं था I कालांतर में मानव के विकास हुए और हम आगे बढ़ते चले
गए I विज्ञान हमारा साथ दिया और जीवन धन्य हो गए I आज हम बात भारतीय मुद्रा के
बारे में चर्चा करेंगे जो एक प्रासंगिक विषय है I
इतिहास की संरचना साक्ष्य सापेक्ष होती
है। इतिहासकार अतीत की घटनाओं का स्वयं साक्षी नहीं होता,
अतः वह पुरावशेषों से
ज्ञात तथ्यों के आधार पर इतिहास का निर्माण करता है। प्राचीन भारतीय इतिहास के
सन्दर्भ में शाब्दी परम्परा तथा पदार्थों परम्परा के अवशेष समान रूप से महत्वपूर्ण
हैं। शाब्दी परम्परा प्राचीन भारतीय साहित्य में सुरक्षित है,
जबकि पदार्थी परम्परा
पुरातत्व से ज्ञात विविध उपकरणों के रूप में उपलब्ध है। यद्यपि ये दोनों ही
इतिहासकार के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं तथापि पुरातात्विक साक्ष्य अपने अविकल रूप
में प्राप्त होने के कारण अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के
अन्तर्गत प्राचीन मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है। यद्यपि मुद्राओं का निर्माण अपने
समय की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति, क्रय-विक्रय तथा लेन-देन को दृष्टि में
रखते हुए हुआ तथापि कालान्तर में ये इतिहास के अनेक अज्ञात एवं अल्पज्ञात पक्षों
के उद्घाटन में सहायक सिद्ध हुई।
मुद्रा शास्त्र के अध्ययन से सम्बन्धित
प्रारंभिक विद्वानों ने मुख्यतः मुद्राओं के आकार-प्रकार,
उन पर अंकित प्रतीकों,
आकृतियों,
लेखों तथा उनके धातु
आदि के अध्ययन को ही महत्व दिया। उन्होंने प्राप्त मुद्राओं तथा मुद्रानिधियों को
प्राप्ति के स्थान और उनके भूमिस्थ होने के समय को यथेष्ट महत्व नहीं दिया जो अनेक
दृष्टियों से उपयोगी था। किन्तु कालान्तर में इस दृष्टि से भी मुद्राओं तथा
मुद्रानिधियों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। अब इस बात पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है
कि कोई मुद्रा अथवा मुद्रानिधि किस स्थान से प्राप्त हुई है और किस काल-खण्ड में
इसे भूमि में निक्षिप्त किया गया। यदि कोई मुद्दा या मुदानिधि पुरातात्विक उत्खनन
में मिलती है तो यह जानना आवश्यक है कि वह उत्खनन के किस स्तर से सम्बद्ध है,
क्योंकि पुरातात्विक
उत्खनन से प्राप्त मुद्राएँ उस स्तर से प्राप्त अन्य भौतिक उपकरणों के काल
निर्धारण में सहायक होती हैं।
मुद्रानिधियों काल-विशेष की राजनीतिक स्थिति पर भी
प्रकाश डालती हैं। सामान्यतः किसी मुद्दानिधि का भूमि के अन्दर से मिलना राजनीतिक
अशान्ति और अव्यवस्था का सूचक माना जाता है। इस दृष्टि से गुप्त मुद्राओं की बयाना
निधि उल्लेखनीय है। इसमें 193 मुदारे
समुद्रगुप्त की हैं। ( जिसमें चन्द्रगुप्त कुमार देवी प्रकार की मुद्रा भी शामिल
हैं)। 16 मुद्राएँ काच की हैं. 983 मुद्राएँ चन्द्रगुप्त द्वितीय की हैं, 628 मुद्राएँ कुमारगुप्त प्रथम की हैं और केवल एक मुद्रा
स्कन्दगुप्त की है। स्पष्टतः इस मुद्रा निधि का भूमि में निक्षेप स्कन्दगुप्त के
शासन काल में हुआ। कदाचित इस मुद्रानिधि को
भूगर्भ में छिपाने का कारण हूणों का वह आक्रमण था जिसका उल्लेख स्कन्दगुप्त के
भीतरी एवं जूनागढ़ से प्राप्त अभिलेखों में मिलता है'। 'यद्यपि भूमि में मुद्रानिधियों के निक्षेप
का एक प्रमुख कारण राजनीतिक अशान्ति को माना गया है तथा इसका एक अन्य महत्वपूर्ण
कारण प्राचीन भारत में व्यवस्थित बैकिंग प्रणाली का अभाव भी था। प्रायः लोग शान्ति
काल में भी अपने धन को चोर डाकुओं से सुरक्षित रखने के लिए गोपनीय ढंग से भूमि में
दबा देते थे।
मुद्राओं तथा मुद्रानिधियों के प्राप्ति स्थल
को दृष्टि में रखना अन्य दृष्टियों से भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। मुद्राओं के
प्राप्ति स्थलों को ध्यान में रखते हुए ही यौधेयों का राज्य क्षेत्र सतलज और यमुना
नदियों के बीच निर्धारित किया गया। इसी प्रकार मालवगण के पंजाब से राजस्थान की ओर
प्रव्रजन के संकेत भी मालव मुद्राओं के प्राप्ति-स्थलों से ही मिलते हैं। शिविगण
का पंजाब से चित्तौड़गढ़ के समीप मध्यमिका में जाकर बस जाना मुख्यतः उनकी मुद्राओं
के साक्ष्य से ही इंगित हुआ है। जब किसी राजवंश के प्रारम्भिक शासकों की अधिकांश
मुद्रानिधियाँ किसी क्षेत्र विशेष से प्राप्त होती हैं तो यह अनुमान लगाया जाता है
कि वही क्षेत्र उस राजवंश का मूल क्षेत्र रहा होगा। इसी को दृष्टि में रखते हुए
श्रीराम गोयल ने यह मत प्रतिपादित किया कि गुप्त सम्राटों का मूल क्षेत्र पूर्वी
उत्तर- -प्रदेश था, क्योंकि इस क्षेत्र से गुप्त स्वर्ण मुद्राओं की सोलह निधियाँ प्राप्त हुई
हैं। 'यदा-कदा मुद्रानिधियों से राजाओं के सैनिक अभियानों की भी पुष्टि होती है।
कश्मीर नरेश ललितादित्य मुक्तापीड के मुद्राओं की एक निधि उत्तर-प्रदेश के वाँदा
जिले से प्राप्त हुई है। इतिहासकारों का यह अनुमान सही प्रतीत होता है कि ये
मुद्राएँ कन्नौज नरेश यशोवर्मा के विरुद्ध उनके उस सैनिक अभियान में यहाँ पहुँची
होंगी जिसकी सूचना हमें कल्हण की राजतरंगिणी से मिलती है ।
मुद्रानिधियों के प्राप्ति-स्थल आर्थिक
इतिहास पर भी रोचक प्रकाश डालते हैं। कुषाण मुद्राओं की एक निधि अबीसीनिया से प्राप्त
हुई है, जो कुषाणकालीन भारत और अबीसीनिया के बीच व्यापारिक सम्बन्ध की पुष्टि करती
है। इसी प्रकार दक्षिण भारत के कतिपय स्थलों से रोमन मुद्रा-निधियों की प्राप्ति'
भारत और रोम के बीच
घनिष्ट व्यापारिक सम्बन्ध को प्रकट करती हैं। इस प्रकार इतिहास-निरूपण के लिए
मुद्राओं एवं मुदानिधियों के प्राप्ति क्षेत्र से अवगत होना तो आवश्यक है ही साथ
ही यह जानना भी आवश्यक है कि किसी मुद्रानिधि को भूमिस्थ कब किया गया ।
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