भारतीय प्रतिमाशास्त्र में बंगाल-बिहार की कला Bhartiya Pratimashastra men Bengal-Bihar ki Kala - TECHNO ART EDUCATION

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Monday, January 16, 2023

भारतीय प्रतिमाशास्त्र में बंगाल-बिहार की कला Bhartiya Pratimashastra men Bengal-Bihar ki Kala

 

भारतीय प्रतिमाशास्त्र में बंगाल-बिहार की कला

बिहार की कला प्राचीन भारत के शासन काल से लेकर आधुनिक काल के समकालीन इतिहास में ख्याति लब्धता कायम कर चुकी है। यहाँ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अवलोकन करें तो बिहार- बंगाल एकीकृत बंगाल जिसमें (बंगाल, बिहार और ओडिसा सहित) सन् 1905 का इतिहास कुछ और बँया करती है। आज हम जिस कला की बात इस आलेख के माध्यम से करना चाह रहे हैं वह बंगाल-बिहार की मूर्तिशिल्प और उनकी कलात्मक योगदान के बारे में जानकारी हासिल करना है।

 

    बंगाल-बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में यदि पर्यटन के दृष्टिकोण से देखा जाय तो बंगाल विष्णुपुर(बंगाल) के टेराकोटा विष्णुमन्दिर सनातन धर्म के प्रचलन को दर्शाता है ठीक जब हम बिहार भ्रमण करते हैं तो पाते हैं कि यहाँ सनातन धर्म को सिर्फ गंगा के किनारे बसे शहरों तथा ग्रामीण इलाकों में मूर्तिपूजा  को बौतायता से स्पष्ट देखा जाता है। इन क्षेत्रों का शोध परक जानकारी हासिल करने पर यह पता चलता है कि जो भी सनातन धर्म, ब्राह्मण धर्म, जैन धर्म बौद्ध धर्म के अनुयायी, संरक्षक, राजाओं ने नदी के किनारे ही मन्दिरों का निर्माण करवाया ताकि पवित्र स्नान के साथ ईश्वर की आराधना हो सके । उसी सन्दर्भ में हम उन मंदिरों में तथा उनके गर्भगृह में खड़े, पड़े, झुके, लेटे उन प्रतिमाओं का विहंगम अवलोकन करते हैं और पाते हैं कि वे एक ही नहीं विभिन्न धर्मों से संबंध रखते हैं।

 


    आइए, अब हम प्रतिमा शास्त्रीय विचारों को देखते हैं। इसमें जिन राजाओं ने बंगाल-बिहार के क्षेत्रों में मूर्तिशिल्प करवाये के वास्तव में सनातनी या ब्राह्मण धर्म से ताल्लुक रखते थे। खैर, उसमें हमारी कोई विशेष रुचि नहीं । खासकर पाल और सेन शासकों जैसे- धर्मपाल बिहार से तो सेन शासक बंगाल से आते हैं।

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 

    बिहार-बंगाल क्षेत्र की अधिकांश मूर्तियाँ और सेन शासकों के समय में निर्मित हुई हैं। मूर्तियाँ प्राप्त होने के जो क्षेत्र हैं उनमें पाल शासकों  के समय बौद्ध मूर्तियाँ तथा सेन शासकों  के समय हिन्दू धर्म का अधिक प्रचार होने से ब्राह्मण मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। आठवीं शती ई० में पालवंश की स्थापना में गोपाल, धर्मपाल, देवपाल प्रमुख शासक रहे। जिनका शासनक्षेत्र पूर्व में असम और पश्चिम में कन्नौज था। में मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। पाल राजाओं ने बौद्ध धर्म को अपनाया था। इन्होंने अपने क्षेत्र में बौद्ध मूर्तियों का निर्माण घड़ल्ले से करवाया। ये महायान सम्प्रदाय से आते थे इसी कारण इससे संबंधित बहुत से देवी-देवताओं के मूर्तियों का निर्माण करवाया। यहाँ के मूर्तियों में बौद्ध मूर्ति के अलावा जैन धर्म की भी शिल्पांकन में मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

 

    8वीं शती ई. के मध्य से 11वीं शती ई. के अन्त तक पाल शासक पूर्वी भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति थे और इनके काल में प्रचुर संख्या में प्रस्तर व धातु मूर्तियों का निर्माण हुआ। साथ ही पहाड़पुर (बंग्लादेश - 7वीं 8वीं शती ई.) से राधा एवं कृष्ण तथा बलराम-कृष्ण, रामकथा तथा कृष्ण लीला से सम्बन्धित मृण्मूर्तियों के भी उदाहरण प्राप्त हुए हैं। पालकालीन वास्तु अवशेषों को मुसलमान आक्रमणकर्त्ताओं ने बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया। इसी कारण पाल मूर्तियों के उदाहरण मन्दिरों के स्थान पर मुख्यतः स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में मिलते हैं।

 

मूर्तियां प्राप्ति क्षेत्र

 

    बिहार के दक्षिणी क्षेत्रों में राजगीर, नालंदा, नवादा, पावापुरी आदि स्थानों पर जैन मन्दिरों में पालवंशीय मूर्तियों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। नालन्दा से पत्थर एवं धातु दोनों ही प्रकार की मूर्तियों के उदाहरण प्राप्त हुए हैं। नालन्दा के साथ-साथ राजगिरी, बोधगया, भागलपुर, चौसा, कुर्किहार, अलुआरा, वैशाली, दुलभी, बुधपुर, मिदनापुर, दीनाजपुर, पुरुलिया, झवरी, बघौरा, शकरबंध, सुन्दरवन, बर्दमान, बाँकुड़ा, राजशाही तथा अन्य कई स्थानों से पालकालीन पत्थर व धातु मूर्तियों के उदाहरण मिले हैं।

 

पालकालीन मूर्तियाँ आज नालन्दा एवं पटना संग्रहालयों के अतिरिक्त बिहार के बाहर भारतीय संग्रहालय कलकत्ता, सारनाथ संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली, भारत कला भवन वाराणसी और ब्रिटिश संग्रहालय लन्दन की शोभा बढ़ा रही हैं।

 

शिल्प के विषय

 

    भारत एक मूर्तिपूजक देश होने के कारण विभिन्न धर्मों के लोगों ने अपने इक्शानुसार मूर्ति निर्माण करवाये। पाल शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। अतः उनके शासन काल में बौद्ध देवी-देवताओं की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। इनमें बुद्ध, पद्मपाणि, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, हारिति, बोधिसत्व, मंजुश्री, तारा आदि की अनेक मूर्तियाँ हैं। राजगिरी के वैभारगिरी तथा अन्य कई स्थलों से जैन तीर्थंकरों, जिन चौमुखी एवं कुछ जैन यक्षियों की मूर्तियों मिली हैं।

 

निर्माण शैली

 

    पाल मूर्तियाँ उत्तर मध्यकालीन मूर्तियाँ हैं जिनमें 10वीं शती ई. की मध्ययुगीन कला के तत्त्व यथा- भाव-भंगिमाओं की अधिकता, अलंकरण तथा लक्षणों की प्रधानता आदि तत्त्व प्रभावी रूप से दिखाई देते हैं। पाल शासकों के काल में एक शैली कि स्थापना हुई जिसे मगध-बंग शैली के नाम से जाना जाता है । इन मूर्तियों पर स्पष्टतः पूर्ववर्ती गुप्त मूर्तिकला विशेषतः सारनाथ शैली का. जिसके अन्तर्गत हल्के व इकहरे बदनवाली आकृतियों और पारदर्शक वस्त्र-विन्यास आदि का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। पाल शासकों के बाद उनके उत्तराधिकारी सेन शासकों तथा उनके बाद भी बिहार, बंगाल तथा असम के क्षेत्रों में विकसित परवर्ती मध्ययुगीन तत्त्वों के साथ इस कला शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। इस शैली में बनीं स्वतन्त्र मूर्तियों के उदाहरणों के साथ ही नालन्दा के बौद्ध स्तूपों एवं राजगिरी के जैन मन्दिरों पर भी इसी पालकालीन मूर्तियों के उदाहरण देखे जा सकते हैं।

 

शैक्षणिक विकास और शिल्पकला

 

    छठी शताब्दी में बनी नालन्दा विश्वविद्यालय पाल कला का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र था जिसे कुमारगुप्त ने गुप्तकाल में बनवाया था । जहाँ पूर्वी भारत की 'मगध-बंग' शैली का विकास हुआ। इसके इलाकों जैसे, नालन्दा, कुर्किहार, नवादा, पावापुरी, तेल्हाडा से प्रस्तर एवं धातु दोनों ही प्रकार के मूर्तियों के उदाहरण मिले हैं। पाल-प्रस्तर मूर्तियों का निर्माण 'गया' और 'राजमहल' से प्राप्त भूरे और काले रंग के मुलायम बसाल्ट पत्थर में हुआ है। पत्थर के मुलायम होने के कारण ही पाल मूर्तियों में लक्षण एवं वस्त्राभूषण के विवरण को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ उकेरने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। जिनमें से बोधगया' की प्रारम्भिक मूर्तियों में मथुरा की कुषाण शैली की मांसलता और घनत्व तथा नालन्दा की मूर्तियों में सारनाथ शैली का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है।

 

    पाल मूर्तियाँ पूर्णतया प्रतिमाशास्त्रीय विवरणों पर आधारित और 10वीं- 11वीं शती ई. में विकसित लक्षणों से बोझिल-सी दिखाई देती हैं। दैव मूर्तियों के निर्माण का उद्देश्य धार्मिक होता था। इस कारण से शास्त्रीय नियमों के अनुसार ही उनको बनाना आवश्यक था। अब मूर्तियाँ केवल कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं रह गई थीं वरन् शास्त्रीय विवरणों के पालन की बाध्यता के कारण कलाकार की निजी कल्पना, अनुभव और साधना के आधार पर देव मूर्तियों के निर्माण की स्वतन्त्रता लगभग समाप्त हो गई थी। तथापि पाल शैली के शिल्पी ने शास्त्रीय मर्यादाओं में रहते हुए भी, स्थान-स्थान पर अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है।

 

    पाल मूर्तियों में मुख्यतया दैव-प्रतिमाओं के ही उदाहरण मिलते हैं। समकालीन गुर्जर-प्रतिहार, चन्देल तथा भुवनेश्वर के समान पाल मूर्तियों में अप्सराओं, काम-प्रधान अंकनों एवं लौकिक विषयों का सर्वथा अभाव रहा है।

 

    पाल शैली की मूर्तियाँ या तो चारों ओर से कोरकर बनाई गई हैं अथवा पाषाण शिला पर उत्कीर्ण फलक शिल्प की परम्परा में विकसित हुई हैं जिसका प्रारम्भ गुप्तकाल से ही देखा जा सकता है। पाल काल की स्वतन्त्र और त्रिआयामी मूर्तियों में भी विशाल और अलंकृत प्रभामण्डल द्वारा मूर्ति को पीठ की तरफ से जोड़कर फलक शिल्प का भाव व्यक्त किया गया है। इसी कारण सामने और अगल-बगल से मूर्तियाँ गोलाई में बनी हैं किन्तु पीछे की ओर चिपटी दिखाई देती हैं। फलतः पाल मूर्तियों में पीठिका और ऊपर के फलक भाग को क्रमशः विस्तार और अत्यधिक अलंकृत रूप से बनाया जाने लगा जिससे पूरा फलक, आसन, पृष्ठभाग एवं प्रभावली मुख्य देव आकृति के साथ एकीकृत होकर सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त होते दिखाई देते हैं।

 

निष्कर्ष

 

      उपरोक्त कथन से यह पता चलता है कि पाल वंश और सेन वंश से बंगाल-बिहार के महान राजा हुए तथा इन लोगों ने बौद्ध मूर्तियों के निर्माण में अपनी पूरी शक्ति लगाकर बौद्ध धर्म को ऊँचाइयों पर ले जाने की कोशिश की ।

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