कला और समाज के अंतर्संबंध
इतिहास गवाह है की भारतीय सभ्यता किसी
दूसरे सभ्यता से कहीं कम नहीं है । जब हम विश्व की प्राचीन इतिहासों के बारे में
अध्ययन करते हैं तो हमें आदि मानव से लेकर आज के आधुनिक काल के मानवों में जो अंतर
मिलता है वह है जीवन शैली । सभ्यता के प्रारंभिक काल से ही मानव ने धरती पर अपने स्वतंत्र
सम्बन्ध के द्वारा मानव जाति को एक साथ
रहकर सुख-दुःख का आनंद दिलाने में अत्यधिक प्रयत्न किया। अपने विचारों और कल्पनाओ,
अनुभूतियों, संवेदनाओं और प्रभावों को एक शब्द में स्वयं को ही व्यक्त करने हेतु मनुष्य
को अपने द्वारा वर्तमान समय में उपलब्ध
भौतिक उपकरणों पर आश्रित होकर कला निर्मिती के प्रति जागरूक हुए । मानव समाज में
रहने के साथ – साथ अपनी मूक भाषा को आकृतियों में, रेखाओं में तथा एक रूपाकार
वास्तु के निर्माण करके अपनी अतुलनीय अभिव्यक्ति को प्रदर्शित किया । जब समय बीतता
गया कला का रूपरेखा भी विभिन्न आयामों में निखरकर हमारे बीच आने लगे । जिसका
नामकरण-कविता, संगीत, अभिनय एवं नृत्य के रूप में किया गया । गेरू, खड़िया, पत्थर, मिट्टी अथवा काष्ठ उसके भौतिक उपकरणों पर
आधारित माध्यम थे जो चित्र, मूर्ति एवं वास्तु के नाम से जाने गये।
कला का अर्थ
कला और समाज की विवेचना करने से पहले हमें
उनके अर्थों को जानना अति आवश्यक है। इनमें अंतर्संबंध क्या है क्या समाज की
व्याख्या कला को जोड़ कर किया जा सकता है ? यह शोध का विषय है जिसे विद्वानों को इस
पर काफी कम कर के सिद्ध करना होगा ।
कला के सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चत्य
शिक्षाविदों, कलाकारों, सौंदर्य शाश्त्रियों के विभिन्न मत हैं । परन्तु सभी के
आदर्श विचारों में सौंदर्य की व्याख्या के साथ मनोवैज्ञानिक सोच को भी बताया गया
है क्योंकि मनःस्थिति के बदले विचारों का प्रदर्शन ही कला का वास्तविक स्वरुप है,
चाहे वह दृश्यकला हो अथवा प्रदर्शनकारी कला या दोनों । जब हम धर्मशास्त्रों की बात
करते हैं तो सामवेद और ललितविस्तर तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि पुस्तकों में कला
की अलग-अलग व्याख्या की गई है। यूरोपीय दृष्टिकोण से संगीत,
मूर्ति,
चित्र आदि के साथ
काव्य भी कला है जो खास तौर पर साहित्य के अन्तर्गत आता है। आज हमारे देश में भी
लोग पाश्चत्य सभ्यता से अछूते नहीं हैं और नहीं हम बाख रहे हैं । इसी के कारण
वाह्य विचार भी स्वीकार्य है ।
आइये अब हम कुछ पश्चिमी विद्वानों के कला के प्रति दिए गए मतों से रूबरू होते हैं –
विभिन्न सौन्दर्यशास्त्रियों में ललित कला
को अरस्तू, क्रोचे, गेटे,
टाल्सटाय, रस्किन, आदि ने परिभाषित किया है।
टाल्सटाय ने कहा है कि "कला की प्रक्रिया अपने हृदय में उठी हुई भावनाओं की अनुभूति को क्रिया, रेखा, वर्ण, ध्वनि तथा शब्द आदि के द्वारा दूसरे के हृदय तक पहुँचा देना है।”
अरस्तू ने कहा है-" 'अनुकरण
ही कला का मूल है।"
दाँते - "कला प्रकृति
की प्रतिकृति ध्वनित करने की चेष्टा है।" आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक की
अनुभूति को दूसरे तक पहुँचाना ही कला का रहस्य माना है।
फ्रायड ने कला को — "कला
दमित वासनाओं का उभरा हुआ रूप है।"
आइये अब हम कुछ भारतीय विद्वानों के कला
के प्रति दिए गए मतों से रूबरू होते हैं -
गुरु रवीन्द्र नाथ टैगोर के
विचारों में- "कला में मनुष्य बाह्य वस्तुओं का ही नहीं अपितु
स्वानुभूति की अभिव्यक्ति
करता है।" कला का प्रधान लक्ष्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करना है न कि
सूक्ष्म एवं विश्लेषण प्रधान वस्तुओं का विवेचन करना। कला का कार्य मानव के लिए
सत्य और सौन्दर्य की एक सजीव सृष्टि करना है।
मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है
-"अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है जो अपूर्ण कला की पूर्ति है।"
रामचंद्रशुक्ल जी भी इसी
बात का समर्थन करते हैं। इस प्रकार अपने हृदय में उठे भावों को रेखा, रंग, रूप, ध्वनि
अथवा क्रिया आदि किसी-न-किसी माध्यम से इस रूप में व्यक्त कर देना कि दर्शक, श्रोता
अथवा पाठक के मन में भी वही भाव जाग्रत हो जाय, कला है।
हजारों वर्ष पूर्व यूनान के
प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि "वह व्यक्ति जो समाज में नहीं रहता या
तो देवता है या पशु ।" अर्थात् मनुष्य और समाज एक दूसरे से जुड़े हैं, उन्हें
अलग नहीं किया जा सकता।
'समाज' शब्द
का अर्थ बड़ा व्यापक है। मनुष्य के सभी प्रकार के सम्बन्धों और संस्थाओं को
सामूहिक रूप में हम समाज कहते हैं क्योंकि मनुष्य का जन्म, पालन-पोषण, उन्नति, इच्छाओं
की पूर्ति व्यक्ति का विकास एवं सार्वभौमिक विकास सभी कुछ समाज की गोद में ही होता
है।
कुछ विद्वानों ने समाज का वास्तविक परिभाषा को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है ।
फिगिस ने समाज के विषय में
कहा है- "मानव समाज केवल राज्य द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों का बालू का ढेर
नहीं है वरन् वह व्यक्तियों का उन्नतिशील देव समूह है।"
मैकाइवर के अनुसार -
"समाज का अर्थ मनुष्य द्वारा स्थापित ऐसे सम्बन्धों से हैं जिन्हें स्थापित
करने के लिए उन्हें विवश होना पड़ा है।" मैकेन्जी कहते हैं-"व्यक्तियों
की एकता की सामान्य प्रक्रिया समाज है।"
इस प्रकार यह स्पष्ट हो
जाता है कि मनुष्य के ऐसे समूह को ही समाज कहा जाता है जो शान्तिमय एवं
मैत्रीपूर्ण जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखता है। मनुष्य के साधारण
व्यक्तिगत जीवन को समाज नहीं कह सकते। समाज का अर्थ एवं उद्देश्य मनुष्यों का
पारस्परिक मिल-जुलकर रहना है।
समाज के निर्माण के लिए सर्वप्रथम विशाल जन समूह की आवश्यकता होती है। तत्पश्चात् यह आवश्यक है कि समाज के सभी व्यक्तियों का उद्देश्य एक ही हो। यद्यपि विभिन्न व्यक्तियों के उद्देश्य में एकता अस्वाभाविक है फिर भी व्यक्तियों तथा उनके समुदाय को अपने-अपने उद्देश्य की विविधता बनाये रखते हुए सामाजिक उद्देय की एकता का ध्यान रखना है और अपने-अपने स्वार्थ को त्यागकर समाज के प्रति भक्ति-भावना बनाये रखनी चाहिए। इसी के द्वारा मनुष्य के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतः व्यक्तियों में समाज के प्रति पारस्परिक सहयोग एवं कर्त्तव्य पालन करने की भावना होनी चाहिए तभी समाज उन्नति कर सकता है। डॉ. जेबन्स समाज को परिभाषित करते हुए कहते हैं- "समाज व्यक्तियों के मैत्रीपूर्ण अथवा शान्तिमय जीवन की दशा का ही नाम है।" समाज की उत्पत्ति
समाज की उत्पत्ति कब और
कैसे हुई, यह प्रश्न अत्यन्त जटिल है
क्योंकि इसका कोई भी प्रामाणिक रूप इतिहास में प्राप्त नहीं होता है। इस सम्बन्ध
में अनेक दार्शनिकों ने अपने मत प्रस्तुत किये हैं और अनेक सिद्धान्तों का
प्रतिपादन किया है, जो निम्नलिखित हैं-
अतः उपरोक्त व्याख्यानों को
देखा जाये तो हमें समाज और कला का अंतर्संबंध काफी मिश्रित लगता है मानो कोई भी एक
दुसरे के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है।
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