भारतीय शिल्प में आधुनिकता
इतिहास की अनोखी कहानोयों में कला शब्द
की उत्त्पति मानव के विकास का प्रमाण है। भारत में कला में आधुनिक युग की
शुरुआत हम खास कर 19वीं शताब्दी के आरम्भ से
ही मान सकते हैं। मुख्यरूप से हमारे विचारों में परिवर्तन का ही परिणाम है आधुनिक
काल । इन्हीं विचारों के फलस्वरूप कला, साहित्य, संगीत
आदि के क्षेत्र में एक नई चेतना का प्रस्फुटन प्रारम्भ हो गया था। आधुनिक कला की
शुरुआत हम पाश्चात्य देशों की दें हिन् मानेंगे लेकिन इसके साथ ही औद्योगिक
क्रान्ति एक प्रमुख कारण मानी जाती है । यूरोप
इसका सहज उदाहरण है भारत में भी प्रवेश के साथ ही अपना पैर फ़ैलाने लगा था ।
यूरोप में पुनर्जागरण
काल के पश्चात् आधुनिक कला के मुख्यतया तीन कारण रहे- फ्रांस की क्रान्ति, मशीन युग का प्रारम्भ
और सूत्रपात के मानव बहुल प्राधान्य संस्कृति का प्रारम्भ । इस सांस्कृतिक
परिवर्तन में जहाँ चित्रकला में प्रभाववाद को जन्म दिया ठीक उसी प्रकार
मूर्तिशिल्प में कल्पनाशीलता के साथ मनुष्य को समझने में मजबूर कर दिया। तत्कालीन
कलाशिल्पियों ने जिन्होंने यूरोप में सांस्कृतिक व सामाजिक जागृति लाने में प्रमुख
भूमिका निभाई, जिसके फलस्वरूप कला के प्रति नवीन और खुली सोच का
प्रारम्भ हुआ। कलाकार अपने अनुभव और खोज को अपने प्रस्तुतिकरण में प्रमुख रूप से
स्थान देने लगे। इसी प्रकार मूर्तिकारों ने भी मूर्ति की अगत्यात्मकता को तोड़कर
उसमें आम आदमी की सोच और अपने विचारों को गति देना प्रारम्भ किया।
औद्योगिक
क्रांति में मशिनियुग के सूत्रपात के द्वारा तस्वीर खींचने के लिए कैमरे के आविष्कार ने
इस समय आदमी की सोच में बहुत आगे जाकर अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप
कलाकार को भी अपनी कला की नई-नई सम्भावनाओं को खोज निकालना अवश्यंभावी हो गया और
इसी सोच-विचार के अनुकूल सम्पूर्ण यूरोप में एक के बाद एक नवीन कला-आन्दोलनों ने
जन्म लेने लगा ।
भारत में अंग्रेजों के आगमन का कारण
हमारे भारतीय कलात्मक सौंदर्य के साथ – साथ यहाँ की अकूत सम्पतियों को लूटने का कार्य
18वीं शताब्दी में ही मुख्यरूप से शुरू हो गया । इसी शताब्दी में भारत में ब्रिटिश
साम्राज्य की नींव डल चुकी थी। ब्रिटिश काल में मूर्तिकला के बजाय चित्रकला और वास्तुकला
को अत्यधिक प्रश्रय मिला । इसका मुक्य कारण इसाई धर्म का पुरजोर प्रचार और प्रसार
था । पहले जैसा न तो 'तक्षण' और 'शिल्प' का कार्य ही हो रहा
था, ना ही मन्दिरों का निर्माण पहले की भाँति हो रहा था।
मन्दिरों के बाहर की साज-सज्जा व बाग-बगीचों की सुन्दरता पर ही विशेष ध्यान दिया
जा रहा था। ब्रिटिश शासन काल में भारत में अंग्रेजों ने विभिन्न स्थानों पर आर्ट्स
स्कूल खोले तथा अपनी धर्म को फ़ैलाने के लिए गिरिजाघरों का निर्माण करवाने लगे । अंग्रेजों
द्वारा प्रारम्भ किये गए आर्ट स्कूलों में यूरोपियन पद्धति की शिक्षा देनी
प्रारम्भ की गई। यहाँ से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करके स्वतन्त्र रूप से अपनी कला
निर्मित करने लगे। कुछ विदेश प्रस्थान कर वहाँ जाकर कला की उच्च शिक्षा ग्रहण करना
प्रारम्भ किया और उन्होंने स्वदेश लौटकर पाश्चात्य कला के आधार पर ही
कला निर्मिति करना प्रारम्भ कर दिया। भारत में भी आर्ट्स स्कूलों में जिस यूरोपियन
पद्धति की शिक्षा दी जा रही थी. वहाँ से शिक्षित होकर विद्यार्थी समस्त देश में
फैल गये और प्राचीन भारतीय कला-नियमों को भूलकर यूरोपियन पद्धति में ही
कला-निर्मिति करने लगे।
चित्रकला की यूरोपीय
कला पद्धति जैसे विकसित विभिन्न वाद, यथा- प्रभाववाद, घनवाद, फॉववाद, भविष्यवाद, दादावाद, अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद आदि ने
भारत में भी पैर फैलाने प्रारम्भ कर दिये थे और यहाँ की कला भी बड़ी तेजी से
विदेशी रंग में रंगती जा रही थी। इसके फलस्वरूप भारतीय कलाकार इस समय तक
दिग्भ्रमित हो चुका था। भारत में लगभग दो सौ वर्षों तक अंग्रेजी शासन रहा जिसने
कलाकार के मन-मस्तिष्क में से स्वदेशी कला के प्रति जागरूकता नष्ट कर दी थी और जो
नवीन विचारधारा यहाँ प्रस्फुटित होने लगी थी, उसे भी समझने और
ग्रहण करने की शक्ति समाप्त हो गई थी। केवल मात्र यूरोपीय कला का अंधानुकरण
प्रारम्भ हो गया था। मूर्तिकला के क्षेत्र में भी जो कार्य हो रहा था, वह न तो पुरानी
परम्परा का निर्वाह था और न ही नवीन विचारधारा को विकसित करने वाला था। केवल अंधी
नकल मात्र था या अंग्रेजों के प्रोत्साहन के फलस्वरूप निर्मित किया जा रहा था।
विदेशी कला आलोचक भारतीय प्राचीन मूर्तिकला को हेयदृष्टि से देखते थे।
इस दौरान जितनी भी
मूर्तियाँ बनीं, उनमें विदेशी 'यथार्थवाद' का प्रभाव देखा जा
सकता है। प्रदर्शनियों में भी इसी प्रकार का काम दिखाई दे रहा था और इन पाश्चात्य
प्रभावित मूर्तियों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया जा रहा था, जिससे प्रभावित होकर
अनेक युवा कलाकार भी इसी प्रकार की मूर्ति निर्माण की ओर प्रवृत्त हो रहे थे। इस
समय में बनाई जाने वाली मूर्तियाँ परम्परागत रूप से मन्दिरों के लिए बनाई जाने
वाली मूर्तियों से अलग केवल बाग-बगीचों व घरों की शोभा बढ़ाने वाली मूर्तियाँ होती
थीं, जिनमें कलात्मकता की दृष्टि से कोई नवीन विचारधारा
नहीं दिखाई दे रही थी बल्कि मूर्तिकार इस समय स्वतन्त्र व्यवसाय के रूप में
मूर्तियाँ बना रहे थे।
अब कलाकार ने
सार्वजनिक स्थलों, पार्कों, चौराहों, स्मारकों, सरकारी भवनों के बाहर
आदि स्थानों के लिए मूर्ति निर्माण कर अपनी आजीविका कमानी प्रारम्भ कर दी थी। ये
सम्पूर्ण विचारधारा यूरोप में प्रचलन में थी, जहाँ से वह भारत में
भी आई। कलाकार यद्यपि नवीन माध्यमों में भी काम करने लगा था। जैसे- टैराकोटा, प्लास्टर ऑफ पेरिस, काष्ठ, मोम, फाइबर ग्लास आदि-आदि।
यूरोपीय संरक्षक इस समय भारतीय प्राचीन आदर्शवादी प्रतिमाओं की तुलना में इन
पाश्चात्य प्रभावित यथार्थवादी प्रतिमाओं को ही महत्त्व दे रहे थे। इस समय अधिकांश
मूर्तियाँ पाश्चात्य शिल्पियों द्वारा ही बनाई गई थीं, जो आज भी भारत के विभिन्न
स्थानों पर स्थापित देखी जा सकती हैं। देश के अनेक प्रमुख कलाकार भी इस समय
आजीविका के लिए बहुत ही हल्के-फुल्के विषयों पर यथार्थवादी शैली में मूर्ति
निर्माण में व्यस्त थे। जैसे-पनिहारिन, पुजारिन, भिखारिन आदि।
इस समय और 1930
ई. के दशक के आसपास और आगे भी भारतीय मूर्तिकार यूरोप के कुछ नामी
मूर्तिकारों से बहुत प्रभावित रहे। जिनमें रौंदे, हेनरी मूर, आर्चिपेक्को, ब्रान्क्यूसी, आर्प, लिपचिट्ज, जियाकोमेती, हेपवर्थ आदि प्रमुख
नाम हैं। भारतीय मूर्तिकार भी इन्हीं को अपना आदर्श मान
इनके समान मूर्ति निर्माण कार्य कर रहे थे।
सम्पूर्ण देश में कला के क्षेत्र में
जब लगभग ऐसा ही माहौल था तब डॉ. अवनीन्द्र नाथ टैगोर के नेतृत्व में बंगाल में
पुनर्जागरण का सूत्रपात हुआ। इन्होंने कलकत्ता के प्रो. ई.वी. हैवेल के साथ मिलकर
देशवासियों के सामने भारतीय प्राचीन कला रूपों की याद को ताजा करने का बीड़ा
उठाया। उन्होंने अपने शिष्यों व साथियों को साथ में लेकर अजन्ता के चित्रों व
मूर्तियों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई और उन्हें संसार के समक्ष रखा, जिन्हें देखकर सम्पूर्ण संसार
आश्चर्यचकित रह गया। साथ ही उनके माध्यम से जो कला महाविद्यालय भारत में खोले गए, वहाँ पर उन्होंने अपने शिष्यों को
प्रिंसीपल के तौर पर भेजा और इन आर्ट स्कूलों में भारतीय प्राचीन कला रूपों, पहाड़ी लघु चित्रों आदि की भी शिक्षा
देनी प्रारम्भ की गई। इससे एक ओर तो भारतीय विद्यार्थियों में भी प्राचीन भारतीय
कला-रूपों के प्रति आदर सम्मान की भावना प्रस्फुटित होने लगी। साथ ही भारतीय
कलाकार अपनी हीन भावना से मुक्त होकर 'आत्म-सम्मान' की भावना जाग्रत करने में समर्थ हो
सका।
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