चित्रकला
में षडंग क्या है?
संस्कृति की बात विश्व
के विभिन्न देशों में वहाँ के मूलवासी और दैनिक जीवन से प्रेरित कार्यों, रहन-सहन,
भाषा आदि से परिलक्षित होती है। आदिकाल से भारत एक प्राचीन सभ्यता का देश रहा है
जहाँ की जीवन शैली कलाओं से भरी दिख पड़ती है। यदि हम चित्रकला के दृष्टिकोण से
जानें तो हमारे यहाँ का प्राचीन ग्रंथों में सामवेद,
चित्रसूत्र, विष्णुधर्मोत्तर
पुराण, सामरंग सूत्रधार जैसे
प्रमाणिक धर्म ग्रंथों से भारतीय कला और संस्कृति की जानकारी मिल जाती है। इन
ग्रंथों में वर्णित चित्रांकन नियम हमारे द्वारा की गई निर्मिति अर्थात् चित्र व
रेखांकन के कोई न कोई सिद्धांत, सूत्र तथा नियम से बँधे
हुए है इन्हीं नियमों के अंतर्गत चित्रण विधि में अंकन और अनुरांकन की विधि हमारा शास्त्रीय
चित्रण के छ: अंगों की व्याख्या कर उसे प्रतिपादित करता है। आईए अब हम उन चित्रकला
के छ: अंगों पर प्रकाश डालें।
चित्रकला के छ: अंग
यह वह सैद्धांतिक विधि है जिससे रेखा, वर्ण, अंतराल, प्रमाण, भाव, लावण्य, सादृश्यता
के अनुसार एक रुपाकार को ललित कला में
चित्रकला के लिए निदेशित किया गया है। इसके प्रयोग से कलाकार अपनी कला में
वास्तविकता का समावेश कर सकता है तथा इन्हीं छः विधियों के द्वारा किसी वस्तुका
रूपाकार निर्धारित होता है।
1. रूप भेद- जब कलाकार किसी वस्तु
के अंकन में किसी विषय या कल्पना जनित
आकृति का निर्माण करता है तो वह उस विषय व कल्पना द्वारा सोंची गई आकृति को मूर्त
रूप देता है। इसी कार्य को रूपभेद अर्थात् पहचान को व्यक्त करता है। रूप में मन की
स्थिति को दृष्टिगत करने से उसमें लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, मोटाई, पतलेपन, एक वर्णीय
तथा बहु वर्णीय या श्वेत-श्याम का एहसास होता है। किसी वस्तु के सौन्दर्यात्मक
दर्शन हमारे मन को उसके प्रति विचार और अभिव्यक्ति की आजादी देने लगता है।
इस रूप भेद में निर्जीव
व सजीव मानवाकृति, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे
में आनंद के लाक्षणिक प्रभाव दिखाई देने लगते हैं। किसी भी आकृति में रूप रेखा
जितनी ही स्पष्ट, स्वाभाविक और सुन्दर होगी, वह कलाकृति उतनी ही
उत्कृष्ट होगी। रूप भेद का कला में अत्यंत हीँ आवश्यक किया गया है जिससे आकृति का
अंकन ही आकृति के बोध कर सके। कलाकृति में रूप-रेखा का सरल एवं स्वाभाविक होना ही
उसकी विशिष्टता कही जाएगी। कला में आकार गुण का होना ही आनंद की अनुभूति कराता है।
2. प्रमाण- इसका अर्थ हम कला में माप और अनुपात से
मानते हैं। किसी भी वस्तु का चित्रण उसके लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, संयोजन एवं एकसारता को निरूपित करने में
प्रमाण व अनुपात का प्रयोग स्वाभाविक होता है। इससे रूपाकृति में सौन्दर्यात्मकता
के साथ वास्तविक स्वरूप में वस्तु व विषयपरक अंतर देखा जाता है। उसी प्रमाण के
अनुरूप किसी भी आकृति को उसके मूल नाम से हम पहचान पाते हैं या उसका नामकरण करते
हैं।
सजीव चित्रण में उसके शरीर रचनाशास्त्र का
बोध हमें प्रमाण से ही हो पता है। मानवाकृति के अंकन में अंगों की समानता उसके अनुपात
के अनुसार ही कलाकार करता है। चित्रकला में आकृतियों के अंगों को उचित माप देना हीं प्रमाण कहलाएगा । मानव शरीर पुरुष का चेहरा शरीर के माप
के आठवाँ भाग होनी चाहिए जबकि स्त्री के चेहरे का माप उसके शरीर के माप के सातवाँ भाग होनी चाहिए। यह माप सामान्य पुरुष
और स्त्री पर हीं लागू होगी। यदि शरीर की मांसलता और लम्बाई में अंतर दिखाई पड़े तो वहाँ प्रमाण का ख्याल और
माप में साफ विभिन्नता प्रदर्शित होगा।
3. भाव- यह एक मनोवैज्ञानिक के साथ शारीरिक
क्रिया भी कहा जाएगा। परन्तु, भाव हमारे मुखाकृति के परिवर्तन के द्वारा अनुभूति की जा सकती है। इसके
मुख्यतः दो प्रकार बताए गये हैं पहला प्रत्यक्ष भाव और दूसरा अप्रत्यक्ष भाव । प्रत्यक्षभाव
से रूप में हुए विभिन्न क्रियाओं को नंगी आँखों से देखा सकता है और अप्रत्यक्ष भाव
को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथा उसके लाक्षणिक प्रभाव से पहचाना जा सकता है।
चित्रकला में मन के विकार और अभिव्यंजना को प्रदर्शित करने हेतु कालाकार आकृति निर्माण में भाव का निरूपण करता है।
इसमें रंगांकन और रेखांकन का सर्वाधिक योगदान होता है।.
भाव ही चित्र में सौन्दर्य, गुणवत्ता तथा उसके
इन्द्रिय और मनः स्थिति को निरूपित करने में कलाकार को अपनी तकनीक को दिखाना पड़ता
है। यदि उदाहरण के तौर पर अध्ययन करें तो पाते है कि किसी भी शीर्षक विशेष पर
आकृतियों का अंकन एवं संयोजन उस शीर्षक में व्याप्त विषय के भाव व्यक्त होते है। उसके साथ प्राकृतिक दृश्य,
उसके संयोजन को अधिक
प्रबलता प्रदान करते हैं।
4. लावण्य योजना- लावण्य योजना का तात्पर्य सौन्दर्य से की
जाती है। चित्रकला में रूपाकार, प्रमाण, भाव के साथ सौन्दर्यात्यक प्रस्तुति को हीं लावण्य योजना अर्थात् लालित्य
का प्रदर्शन है। उसी लावन्यता के प्रभाव से रसानुभूति का वर्णन कामसूत्र में किया
गया है। लावण्य योजना' मानवाकृति में वाह्य सुन्दरता का व्यंजक माना गया है। भाव को अंर्तनिहित
तथा लावण्य को वाह्य सौन्दर्यात्मक अभिव्यंजना कही गई है। लावण्य को प्रभावकारी
बनाने में रंग का महत्व सबसे अधिक हो जाती है। चित्रों में लावण्यता का लोप उस
चित्र की सौन्दर्यविहीनता मानी जाएगी।
5.
सादृश्य- सादृश्य का अर्थ किसी कला को भाव तथा
उसके यथार्थ माँग और पहचान को प्रदर्शित करना है। भाव के सहारे चित्र में सजीवता
दी जाती है तथा कलाकृति में इसके प्रयोग से सौन्दर्य का भी बोध होने लगता है । ठीक उसी प्रकार से सादृश्यता का तात्पर्य
विषयांकित समानता एवं सच्ची रूपाकृति से है जिसमे रंग,
रेखा,
भाव इन सबों का ख्याल
कलाकार ने रखा हो।
"किसी मूल वस्तु की अविकल प्रकृति की
समानता का नाम ही 'सादृश्य' है। किसी रूप के भाव को किसी दूसरे की सहायता से
प्रकट करना ही सादृश्य का कार्य है।"
इस उक्ति का प्रतिपादन वाचस्पति गैरोला ने
किया है। कलाकृति में विषय-वस्तु का समावेश चाक्षुष की दृष्टि से अति आवश्यक है
तथा उसके मूल वस्तु के गुण-दोषों को अभिव्यक्त करना ही सादृश्य है।
6. वर्णिका भंग- विभिन्न वर्णों अर्थात रंग योजना को
वर्णिकाभंग कहा जाता है। इस क्रिया में कलाकार को बारिकियों का ध्यान रखकर ही
चित्रकृति करनी पड़ती है। रंगों का आपस में संतुलन, अंतर, श्वेत-श्याम का गुण या बहुरंगी
वर्ण योजना हीं वर्णिकाभंग कहलाएगी।
किसी चित्र में रंग बटकर लगाते अर्थात्
एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, किसी में मिलते-जुलते रंग लगते हैं, किसी में चुहचुहाते रंग लगते हैं और किसी
में बुते हुए । नाना वर्णों के योग से चित्र में जो भंगिमा उत्पन्न की जाती है,
उसे ही वर्णिकाभंग
कहा जाता है। यह केवल कलाकार की योग्यता पर निर्भर करता है कि वह चित्र में रंगों का
प्रयोग विषय के अनुरूप करे एवं भाव को स्पष्ट करने में पूर्ण योग दे।"
षडंग में वर्णिकाभंग से चित्र की रंगीय
भंगिमा व्यक्त होती है। कलात्मक दृष्टि से आँकलन करने पर चित्र में रंगीय आभास को
छाया-प्रकाश, तेज व मध्यम तान के द्वारा चित्रित करना ही वर्णिकाभंग को परिभाषित करता
है। वर्णों की परस्पर सामंजस्यता इत्यादि चित्र के लिए आवश्यक मानी गयी है। वर्ण
का प्रयोग सावधानी एवं विधिपूर्वक किया जाता है। षडंग की साधना का चरम बिन्दु
वर्णिकाभंग है। वर्णिकाभंग के बिना अन्य पाँच अंगों की साधना निरर्थक हो जाती है।
वर्ण कलाकृति के प्राण होते हैं, इनके मिश्रण में मस्तिष्क का बड़ा योगदान रहता है। यही षडंग भारतीय
चित्रकला में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि
षडंग चित्रकला का वह अंग है जिसके प्रयोग से मूर्त व अमूर्त दोनों प्रकार की कला
को अपने अस्तित्व के अनुरूप भाव दिया जा सकता है। यही कारण है कि हमारे संस्कृति
में शास्त्रों के मूल्य को कभी भूलाया नहीं जा सकता और उनके कलात्मक विधान को समझने
में हम कलाकारों को सर्वाधिक महत्व देना चाहिए।
बहुत अच्छा।
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