कला की आधुनिक प्रवृतियाँ एवं अर्थ
मानव ने धरती पर आकर अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए दिन प्रतिदिन नये नये विकास को अंजाम देने लगा और आज वही विकास की धारा वैज्ञानिक आविष्कारों के रूप में हमारे सामने नजर आरही है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जरिये हम यांत्रिक व्यवस्था के अलावा सांस्कृतिक क्रिया कलापों को भी अनवरत जारी रहा । इन अविष्कारों के जरिये मनुष्य ने तीव्रता से भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त किया है। आधुनिकतावाद ने शिक्षा, स्वास्थय, औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास को भी सामान गति प्रदान किया है । अब मैं आधुनिक कला की आवश्यकता पर प्रकाश डालें तो देश और विदेश में विभिन्न प्रकार के कला में बदलाव को देखा जा सकता है । भौतिकवाद के कारण कला के स्वरूप में जो परिवर्तन आया है उसकी इष्यनिष्टता के बारे में विचार करना कलाप्रेमियों की दृष्टि से आवश्यक हुआ है।
कला के इतिहास का व्यापक विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि समाज में किया गए वैचारिक परिवर्तन का कला के स्वरूप पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । इसके साथ यह भी दिखायी देता है। कि मानव के सामाजिक व सांस्कृतिक विकास में कला ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है व उसके बिना मानव जाति के सर्वांगीण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः कला व समाज के पारस्परिक संबंध की उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्राचीन काल की कला के रूप में जो प्रमाण प्राप्त हुए हैं उसमे न ही कोई नयापन है और नहीं कोई विशिष्टता क्योंकि उस समय कोई भी यांत्रिक और आवश्यक कला से सम्बंधित सामग्री उपलब्ध नहीं थे । आधुनिक काल तक आते-आते काफी परिवर्तन हुआ है जिसके प्रमुख कारण हैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का नया स्वरुप में आना, धार्मिक प्रवृति का ह्रास और भौतिकवाद के साथ आधुनिकता का अनु शरण ।
साहित्य, कला व संगीत ऐसे साधन हैं जो मानव की उन्नति में जिस तरह सहायक हो सकते हैं 'उसी तरह पतन के कारण भी हो सकते हैं। कला मानव-मन में सात्विक, राजसी या तामसी भाव उत्पन्न करती है और यह कलाकार की निष्ठा पर निर्भर है कि उसकी कला प्रेक्षक को किस तरह प्रभावित करती है। कलाकार की निष्ठा अधिकतर उस समाज के जीवन दर्शन से प्रभावित होती है, जिसका वह अंग है। प्राचीन भारतीय कला साधारणतया निवृत्तिपरक व सात्त्विक रही है तो पश्चिमी कला प्रवृत्तिपरक व राजसी । भौतिकवाद के प्रभाव के कारण जिस तरह की आधुनिक कला की निर्मिति हो रही है उसका स्वरूप क्या है व उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह प्रस्तुत लेख का विषय है। भौतिकवाद के अनुसार प्रकट सृष्टि के मूलाधार पंचमहाभूत है जिन में पृथ्वी, जल व वायु पदार्थ हैं, तेज चैतन्य है तथा आकाश घटनास्थल। बीसवीं सदी तक के भौतिक विज्ञान में पदार्थ व तेज को अविनिमेय माना जाता था किन्तु नवीन सिद्धान्तों के अनुसार उनको एक दूसरे में परिवर्तनीय माना जाता है। एक आत्यंतिक दृष्टिकोण से की गयी भौतिकवाद की परिभाषा के अनुसार संसार में भौतिक तत्त्व ही सब कुछ है व उसके जरिये हर सांसारिक तथ्य, यहाँ तक कि विचार, संकल्प व भावना का भी स्पष्टीकरण किया जा सकता है। किन्तु यह दृष्टिकोण लेखन की अर्थवत्ता को ही समाप्त कर देता है क्योंकि इससे अपने 'अहं' को भूल कर बिजी अस्तित्व के बारे में सोचने जैसी असंभवता खड़ी हो जाती है। सामान्यतया मानव जीवन पर हो रहे परिणाम के मद्देनजर भौतिकवाद उस विचारधारा को नाम दिया गया है जो अध्यात्मवाद, आदर्शवाद या काल्पनिक सुख को अस्वीकार कर ऐंद्रिय ज्ञान व ऐंद्रिय सुख को जीवन का एकमेव श्रेयस्कर मार्ग मानती है। कला पर भौतिकवाद के हुए प्रभाव का विचार करते समय हम इस सामान्य परिभाषा को ही ध्यान में रखेंगे।
मानव का संपूर्ण जीवन उसकी ऐंद्रिय
अनुभूतियों के आधार पर विकसित होता है। ऐंद्रिय संवेदनों द्वारा मानव के विचार, कल्पना व प्रेरणा का निर्धारण होता है या मनुष्य में ही स्वयंभू कोई
ऐसी आंतरिक गूढ़ शक्ति होती है जो उसे प्राप्त ऐंद्रिय संवेदनों को अर्थ प्रदान
करती है, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं व किसी भी
मत के समर्थन में कोई निर्णायक प्रमाण नहीं मिलते। अतः इस अंतहीन अनुपयुक्त विवाद
में पड़ने के बजाय परंपरागत साहित्य में व्यक्त किये गये ईश्वर, परलोक, अज्ञात शक्तियाँ, आत्मा व आत्मिक सुख आदि विचारों को आध्यात्मिक या काल्पनिक व ऐद्रिय
सुख-दुःख व तत्संबंधी विचारों को भौतिक मान कर कला का गुण-दोष विवेचन करना उचित
होगा।
शरीर रक्षा के लिये जैसे भौतिक पदार्थों
की आवश्यकता होती हैं वैसे ही कलानिर्मिति व उसका रसग्रहण रंग, आकार, ध्वनि आदि ऐंद्रिय संवेदनों पर निर्भर
होने से कला के भौतिक आधार को नकारा नहीं जा सकता। किन्तु जिस तरह पाषाण की साकार
मूर्ति में निराकार की अनुभूति देने की सामर्थ्य होती है उसी तरह कला के भौतिक
रूप में विचारों को जागृत करने व आत्मिक अनुभूति देने की सामर्थ्य होती है। इस
तथ्य को सामने रखकर कला के इतिहास का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि
देशकालानुसार कला पर अध्यात्म, धर्म, कल्पना व भौतिक सौंदर्य ने अपना-अपना प्रभाव छोड़ा है।
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