बालकों में संगीत का ज्ञान
बच्चों को संगीत-शिक्षा क्यों दी जाए ?
शिक्षा की आवश्यकता हमारे जीवन की अनमोल पहलू है । इसे पाने के लिए हम कोई न कोई उपाय को अपनाते हैं । इन सभी शिक्षाओं के साथ -साथ तकनिकी शिक्षा का ज्ञान भी हमारे सामाजिक प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा देता है ।समस्त संसार के लोगों ने यह अनुभव किया है कि बच्चों को प्रारंभ से ही संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए। ऐसा करने से उनके कान नाद के ऊ चे-नीचेपन के भेदों को समझ सकेंगे । फलस्वरूप वे स्वर (ध्वनि) के तथा ताल (गति) के द्वारा उत्पन्न सौंदर्य का आनंद ले सकेंगे और अपने जीवन को अधिक आनंद मय बना सकेंगे। यह सत्य है कि कुछ लोगों में संगीत की प्रतिभा जन्मजात होती है । ऐसे लोग स्वर तथा ताल की ओर शीघ्र आकर्षित हो जाते हैं । जिनमें यह प्रतिभा नहीं होती, वे उससे दूर रहते हैं । अनुभव ने यह बताया है कि इन दोनों प्रवृत्तियों के लोगों के मध्य अनेक व्यक्ति इस प्रकार के भी होते हैं कि उनमें कलाओं के प्रति प्रतिभा कुछ कम या अधिक होती है। ऐसे लोगों को अच्छी शिक्षा (यदि उनमें उत्साह और लगन है) अच्छा कलाकार बना देती है । ऐसा करने में जो उन्हें आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, वह धनवान् बनने के आनंद से कहीं अधिक होता है ।
बच्चे बेसुरे क्यों होते हैं ?
जब किसी प्राइमरी स्कूल में सबसे पहले दिन बच्चों से कुछ गाने के लिए कहा जाएगा तो अध्यापकों को अनुभव होगा कि कुछ बच्चे तो स्वर में गा रहे हैं और कुछ बेसुरे हैं । इन बेसुरों में भी कुछ ऐसे होंगे, जो निश्चित स्वर से कुछ ऊँचा गा रहे हों। कुछ ऐसे होंगे, जो उस नियत स्वर से कुछ नीचा गा रहे हों। इस स्थिति से अध्यापकों को घबराना नहीं चाहिए। प्रारंभिक दिनों में तो ऐसा होना स्वाभाविक होता है। यदि अध्यापकगण ध्यान देंगे तो इस प्रकार बेसुरे होने के जो कारण बच्चों में पाए जाते हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1. दोषपूर्ण गायक बच्चे
2. जो बच्चे बेसुरा गाते हैं
3. जो गायक नहीं हैं
4. जो केवल सुन रहे हैं
5. जो एक ही स्वर पर गा रहे हैं
6. जो बातें करते हुए गाते हैं और
7. जो असावधानी से गाते हैं ।
विचार करें तो ऊपर की समस्त बातों का अर्थ एक ही है—'वेसुरा अथवा दोषयुक्त गाना' । इनमें से प्रत्येक दोष को दूर किया जा सकता है। परंतु कुछ लोगों का अनु मान है कि जो बच्चे एक ही स्वर पर गाते रहते हैं, उनका दोष दूर नहीं हो सकता । वैसे, ऐसे बच्चे बहुत कम मिलेंगे, जो कि सचमुच एक ही स्वर पर गायन करते हों । बात यह है कि जिन स्वरों को वे गाते हैं, वे उचित उंचाई -निचाई के नहीं होते । इसलिए उन्हें एक प्रकार से 'एक ही स्वर पर गायन करनेवाला' कह दिया जाता है, जो अनुचित है । अतः जो अध्यापक ऐसा विचार रखते हैं कि ऐसे बच्चे नहीं सुधारे जा सकते, हम उनसे कहेंगे कि वे अपने कर्तव्य से च्युत होते हैं। हमारे विचार से प्रत्येक दोष को शीघ्र से शीघ्र दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह दोष सदैव के लिए बन सकता है। अतः एक उत्तम संगीत-शिक्षक का मुख्य कार्य यही होना चाहिए कि बच्चे से पावनउपयोगीका शुद्ध रूप में उच्चा रण कराए। बेसुरेपन के मुख्य रूप से निम्न कित छह कारण हो सकते हैं
1. बच्चों के कानों का दोषी होना-
अनेक बच्चों के कान ऐसे होते हैं कि वे किन्ही समीप के दो स्वरों का अंतर नहीं समझ पाते। एक सप्तक का अंतर तो उन्हें कुछ अंतर-सा प्रतीत होता है, अन्यथा छोटे स्वरां तरों में उन्हें कोई अंतर प्रतीत नहीं होता। इसका कारण यह भी हो सकता है कि कुछ बच्चों ने स्कूल में प्रवेश पाने से पूर्व न तो कभी गायन-वादन को ध्यान से सुना हो और न कभी गाने का प्रयत्न ही किया हो। इस प्रकार जवकि उन्होंने गायन-क्रिया को पहली बार ही प्रत्यक्ष रूप में देखा हो अथवा उनके स्वयं के गाने का प्रथम प्रयास ही हो, तो ऐसी नदियों का होना स्वाभाविक है। देखा जाए तो उनके कंठ को दोषपूर्ण कहना ही उचित नहीं है। वरन् यह उनके मस्तिष्क का एक विकार है। इसे यूं भी कह सकते हैं। कि वे 'सुनना' नहीं जानते। इसी लिए हमने इस दोष को कानों का दोषी होना बताया है ।
2. बच्चों में ध्वनि का पहचान में कमी होना-
बेसुरे होने का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि बच्चों की समझ में यही न आए कि गायन कैसे किया जाता है। बे बोलने की ध्वनि और गायन करने की ध्वनि का अंतर ही न समझते हों। संभवतः उनका गायन एक प्रकार से गुरनि-जैसी ध्वनि उत्पन्न करता हो ।
3. गाने में बल का प्रयोग करना -
बेसुरे होने का तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि गायन करते समय बच्चे को अधिक बल का प्रयोग करना पड़ रहा हो, अर्थात उसे गायन करने में अधिक प्रयास करना पड़ता हो। ऐसी अवस्था में बहु स्वर से कुछ ऊँचा गाता है (इसके अतिरिक्त जो अन्य कारण बताए गए हैं, उनमें बच्चा नियत स्वर से कुछ नीचा गाता है)। प्रयास के कारण उसकी भौहों का चढ़ना, माथे पर सिकुडन पड़ना, मुट्ठियों का बंध जाना, ठोड़ी का ऊंचे उठा रहना, चेहरे का लाल होना, जबड़े का कड़ा होना और गले की नयों का फूलना इत्यादि है।
4. गाते समय आसन का ज्ञान नहीं होना -
चौथा कारण यह भी हो सकता है कि बच्चों के बैठने का ढंग खराब हो । जो कारण ऊपर नं० 3 के अंतर्गत बताए गए हैं, उनकी वजह भी त्रुटिपूर्ण बैठक है। परंतु यहाँ हमारा जिस ओर संकेत है, वह है किसी चीज का सहारा लेकर बैठना या भद्दे ढंग से बैठना। यदि बच्चे ठीक प्रकार से नहीं बैठते हैं तो उनमें प्रयास तथा रुचि की न्यूनता प्रकट होती है।
5. लय मएन असमानता होना -
इन सबके अतिरिक्त मस्तिष्क और ध्वनि में एकता का स्थापित न होना भी बेसुरे गायन का एक कारण है। अर्थात लय का अभाव ही इसका मूल कारन है। दूसरे शब्दों में इसे 'भद्दापन' तथा 'अनिश्चितता' भी कह सकते हैं।
6. बच्चों में बीमारी का होना -
इन सब कारणों के अतिरिक्त बेसुरे होने के जो अन्य मुख्य कारण हैं, उनमें नाक, तथा गले के रोग है जैसे गले की गिल्टियों का खराब होना (टोंसिलों का बढ़ जाना), तालुका फट जाना, होठों का छोटा होना, जिह्वा का स्थूल होना , हकलाकर बोलना। स्नायु-संबंधी रोगों से पीडि.त होना, बहरापन अथवा बुद्धि का दुर्होबल होना आदि भी इसी प्रकार के अन्य रोग हैं।
यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि अंतिम (छठे) कारणों के अतिरिक्त अन्य समस्त कारणों का उपचार हो सकता है। साथ में यह भी संभव है कि इन कारणों में से एक से अधिक कारण भी किसी एक बच्चे में पाए जाएँ ।
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