तकनिकी दृष्टिकोण में संगीत
शिक्षा
परिचय
मनुष्य स्मृति को याद् करके अपने विचारों को
समाज के सामने परोसने वाला एक प्राणी है जिसे बुरे-भले का ज्ञान होता है I सौंदर्य
के प्रति अनुराग मनुष्य की विशेषता मानी जाती है। इस विशेषता के विकास से व्यक्ति
व्यापक अभिरुचि संपन्न हो जाता है । इस दिशा में संगीत तथा अन्य ललित कलाओं का
शिक्षा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह एक ऐसा विषय है,
जिसमें संतुलन,
कल्पना,
सूझबूझ,
स्वाभाविकता,
आत्मसात, आत्माभिव्यक्ति,
आत्मनियंत्रण,
गति,
व्यायाम तथा और भी
अनेक गुण समाहित हैं । इस संगीत कला के माध्यम से बालक में शिक्षा के प्रति रुचि
उत्पन्न की जा सकती है। पाश्चत्य शिक्षाविदों ने जैसे- मैडम मॉण्टेसरी,
फॉविल आदि अनेक ने
शिशुओं की शिक्षा में संगीत को अनिवार्य स्थान दिया । शिक्षा का समूल्य महत्व उसके
वास्तविक प्रयोग से ही हो सकता है अर्थात इसे कई भागों में बँटी हुई नहीं होनी
चाहिए । किसी भी विषयवस्तु को जबरदस्ती बालकों के मस्तिष्क में भरना ही शिक्षा
नहीं है, अपितु आधुनिक शिक्षाविद् पूरी तरह यह स्वीकार करते हैं कि बुद्धिप्रधान
विषय, यथा अंग्रेजी,
गणित आदि के साथ
अध्यात्म को बढ़ावा देनेवाले और मस्तिष्क में सत्काम को पिरोनेवाले विषय ही
पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की आवश्यक हैं। नोएल वी० हेल ने अपनी पुस्तक 'Education
For Music' (Oxford University) में इन्हीं भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
"It is now seen that education is
incomplete unless, by teaching the things of the heart besides those of the
head, it leads to spiritual growth as well as to intellectual progress and
physical fitness."
शिक्षालयों में जो संगीत-शिक्षण होता है, उसमें संगीत की शिक्षा केवल संगीत का ज्ञान कराने के लिए ही नहीं, वरन् बच्चों के भावों की शिक्षा तथा उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए होती है | संगीत की शिक्षा से जो भावों का परिमार्जन होता है, वह महत्त्वपूर्ण है तथा इसलिए आयु और कक्षा वर्ग के अनुसार जिन रागों का चुनाव होना चाहिए, वे बाल-मनोविज्ञान के आधार पर हों। आजकल जो पाठशालाओं में संगीत का शिक्षण हो रहा है, वह बहुधा अवैज्ञानिक है ।
घराना पद्धति
भारत में संगीत शिक्षा को प्राचीन इतिहास में राजघरानों, बादशाहों, से पूर्व आदि काल से यथा सिन्धु सभ्यता, वैदिककाल, उत्तर वैदिक काल से ही प्रचलित और प्रयोगों में अबाद्ध्य रूप से चलती आ रही हैA परन्तु आज हम फोक संगीत का सहारा लेकर अपनी परम्परागत संगीत शिक्षण विस्मृत करने पर लगे हैं A हमारे देश में राजा – महाराजाओं के समय घराने का संगठनात्मक विचार देखने को मिलता है A यूं तो यदि हम घराने की बात करें तो इन स्थानों पर बनारस घराना, पंजाब घराना, जयपुर घराना, पटना घराना विभिन्न संगठनों का प्रचलन आज भी है A इस घराने में अंतर को भी देखा जाता रहा है जैसे की किसी घराने में स्वर तो किसी में वादन तो किसी में गायकी अपने स्टाइल में प्रयोग की जाती रही है A
घराने के उस्तादों की दृष्टि में स्कूलों
में संगीत की शिक्षा दी ही नहीं जा सकती । उनके अनुसार,
संगीत सीना-व-सीना
तालीम की चीज है । इसे उस्ताद के पास बैठकर ही सीखा जा सकता है । विचारणीय तथ्य यह
है कि आज तक संगीत-शिक्षण-पद्धति में गुरु शिष्य परंपरा या घराना-शिक्षण-पद्धति को
ही हम आदर्श मानते आए हैं । किंतु यदि खुले मस्तिष्क से विचार करें तो हम यह पाते
हैं कि घराना-पद्धति की शिक्षा का उद्देश्य और विद्यालय की शिक्षा का उद्देश्य
भिन्न-भिन्न हैं । घराना-पद्धति में शास्त्रीय गायन की शिक्षा परंपरागत रूप से
गुरु द्वारा शिष्य को दी जाती है । अतएव शिक्षा की विधि व रीतियाँ व्यक्तिगत
शिक्षण के अनुरूप ही हैं, जिसमें समय व ज्ञान क्षेत्र का कोई बंधन नहीं होता । किंतु स्कूल व कॉलेजों
में औपचारिक रूप से गायन - शिक्षा विद्यार्थियों के समूह में निश्चित समय व ज्ञान
क्षेत्र (Syllabus) की सीमाओं में दी जाती है ।
संगीत का
शैक्षिक महत्व
संगीत में विज्ञान
वैज्ञानिक प्रगति से हमारी जीवन-गति में बहुत परिवर्तन हुआ। टी० बी०, रेडियो, वीडियो टेप रिकॉर्डर आदि से विभिन्न प्रकार के संगीत का प्रसारण होता ही रहता है। फलस्वरूप लोक और शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम सामान्य जन तक पहुँच चुके हैं। इससे संगीत का सामान्य ज्ञान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जन-समाज में बढ़ रहा है। किंतु जब विषय की दृष्टि से संगीत की व्याख्या करते हैं व शिक्षण के उद्देश्य से जब इसपर विचार करते हैं, तब यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि संगीत विषय में, विशेषकर शास्त्रीय संगीत की दृष्टि के कुछ उपलब्ध होता है, उसका संयोजन इतने प्रभावपूर्ण ढंग से किया जाए कि विद्यार्थी सहजता से उसे समझ सके, उसमें से बहुत-सा ज्ञान ले सके । अतः इस विषय पर प्रयोग किया गया कि संगीत में उपलब्ध सामग्री को शिक्षार्थियों के स्तर तक पहुँचाने के लिए किस प्रकार संयोजित किया जाए कि शिक्षण में उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े ।
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