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Saturday, October 15, 2022

 

तकनिकी दृष्टिकोण में संगीत शिक्षा

 

परिचय

मनुष्य स्मृति को याद् करके अपने विचारों को समाज के सामने परोसने वाला एक प्राणी है जिसे बुरे-भले का ज्ञान होता है I सौंदर्य के प्रति अनुराग मनुष्य की विशेषता मानी जाती है। इस विशेषता के विकास से व्यक्ति व्यापक अभिरुचि संपन्न हो जाता है । इस दिशा में संगीत तथा अन्य ललित कलाओं का शिक्षा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह एक ऐसा विषय है, जिसमें संतुलन, कल्पना, सूझबूझ, स्वाभाविकता, आत्मसात, आत्माभिव्यक्ति, आत्मनियंत्रण, गति, व्यायाम तथा और भी अनेक गुण समाहित हैं । इस संगीत कला के माध्यम से बालक में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है। पाश्चत्य शिक्षाविदों ने जैसे- मैडम मॉण्टेसरी, फॉविल आदि अनेक ने शिशुओं की शिक्षा में संगीत को अनिवार्य स्थान दिया । शिक्षा का समूल्य महत्व उसके वास्तविक प्रयोग से ही हो सकता है अर्थात इसे कई भागों में बँटी हुई नहीं होनी चाहिए । किसी भी विषयवस्तु को जबरदस्ती बालकों के मस्तिष्क में भरना ही शिक्षा नहीं है, अपितु आधुनिक शिक्षाविद् पूरी तरह यह स्वीकार करते हैं कि बुद्धिप्रधान विषय, यथा अंग्रेजी, गणित आदि के साथ अध्यात्म को बढ़ावा देनेवाले और मस्तिष्क में सत्काम को पिरोनेवाले विषय ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की आवश्यक हैं। नोएल वी० हेल ने अपनी पुस्तक 'Education For Music' (Oxford University) में इन्हीं भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है

 

 "It is now seen that education is incomplete unless, by teaching the things of the heart besides those of the head, it leads to spiritual growth as well as to intellectual progress and physical fitness."

 

शिक्षालयों में जो संगीत-शिक्षण होता है, उसमें संगीत की शिक्षा केवल संगीत का ज्ञान कराने के लिए ही नहीं, वरन् बच्चों के भावों की शिक्षा तथा उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए होती है | संगीत की शिक्षा से जो भावों का परिमार्जन होता है, वह महत्त्वपूर्ण है तथा इसलिए आयु और कक्षा वर्ग के अनुसार जिन रागों का चुनाव होना चाहिए, वे बाल-मनोविज्ञान के आधार पर हों। आजकल जो पाठशालाओं में संगीत का शिक्षण हो रहा है, वह बहुधा अवैज्ञानिक है । 



घराना पद्धति

भारत में संगीत शिक्षा को प्राचीन इतिहास में राजघरानों, बादशाहों, से पूर्व आदि काल से यथा सिन्धु सभ्यता, वैदिककाल, उत्तर वैदिक काल से ही प्रचलित और प्रयोगों में अबाद्ध्य रूप से चलती आ रही हैA परन्तु आज हम फोक संगीत का सहारा लेकर अपनी परम्परागत संगीत शिक्षण विस्मृत करने पर लगे हैं A हमारे देश में राजा – महाराजाओं के समय घराने का संगठनात्मक विचार देखने को मिलता है A यूं तो यदि हम घराने की बात करें तो इन स्थानों पर बनारस घराना, पंजाब घराना, जयपुर घराना, पटना घराना विभिन्न संगठनों का प्रचलन आज भी है A इस घराने में अंतर को भी देखा जाता रहा है जैसे की किसी घराने में स्वर तो किसी में वादन तो किसी में गायकी अपने स्टाइल में प्रयोग की जाती रही है A

 घराने के उस्तादों की दृष्टि में स्कूलों में संगीत की शिक्षा दी ही नहीं जा सकती । उनके अनुसार, संगीत सीना-व-सीना तालीम की चीज है । इसे उस्ताद के पास बैठकर ही सीखा जा सकता है । विचारणीय तथ्य यह है कि आज तक संगीत-शिक्षण-पद्धति में गुरु शिष्य परंपरा या घराना-शिक्षण-पद्धति को ही हम आदर्श मानते आए हैं । किंतु यदि खुले मस्तिष्क से विचार करें तो हम यह पाते हैं कि घराना-पद्धति की शिक्षा का उद्देश्य और विद्यालय की शिक्षा का उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं । घराना-पद्धति में शास्त्रीय गायन की शिक्षा परंपरागत रूप से गुरु द्वारा शिष्य को दी जाती है । अतएव शिक्षा की विधि व रीतियाँ व्यक्तिगत शिक्षण के अनुरूप ही हैं, जिसमें समय व ज्ञान क्षेत्र का कोई बंधन नहीं होता । किंतु स्कूल व कॉलेजों में औपचारिक रूप से गायन - शिक्षा विद्यार्थियों के समूह में निश्चित समय व ज्ञान क्षेत्र (Syllabus) की सीमाओं में दी जाती है ।

      घराना-पद्धति एक कला में (गायन, वादन नृत्य में शिष्य को निपुण बनाने का व कलाकार-स्वर तक लाने का प्रयत्न करती है, जबकि स्कूली शिक्षा का उद्देश्य बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना, उसे अनेक विषयों का समुचित ज्ञान प्रदान करना है । बालक के अंदर छिपी हुई प्रतिभा को विकसित करने का प्रयास भी विद्यालय करता है । शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थी की प्रतिभा को अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करके व उसे प्रोत्साहित कर कलाकार बनने की प्रेरणा विद्यालय शिक्षण में दी जा सकती है। किंतु कलाकार बनाने का उद्देश्य स्कूली प्रशिक्षण का कदापि नहीं है। उद्देश्य की भिन्नता के अनुसार हो प्रशिक्षण प्रणाली भी भिन्न होनी चाहिए और इसी लिए आज इस बात पर विचार करने की बहुत आवश्यकता है कि स्कूली शिक्षण व्यवस्था में संगीत शिक्षण को अधिक-से-अधिक प्रभावशाली कैसे बनाया जाए।

 

संगीत का शैक्षिक महत्व

 संगीत-शिक्षण के क्षेत्र में नवीन प्रयोग और वैज्ञानिक पद्धति के विकास की आवश्य कता अनुभव करते हुए तथा उपर्युक्त कथित संगीत -शिक्षण की समस्या को ध्यान म रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली  से प्राप्त अनुदान की सहायता से संगीत शिक्षण विधि की एक परियोजना का लेखिका द्वारा संचालन किया गया। इस कला का ज्ञान हमें प्राचीन ग्रन्थ सामवेद से मिलता जिसमें संगीत, ललित कला, वास्तुकला आदि विव्हिन्न कलाओं के साथ प्राच्य विद्या की भी जानकारी प्राप्त होती है A केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने इसे मान्यता दे कर अनिवार्य किया है A इन व्यवस्थाओं में परियोजना के अंतर्गत ऐसी दृश्य-श्रव्य सामग्रियों का भी विकास किया गया, जिससे संगीत-शिक्षण रोचक, मनोवैज्ञानिक व प्रभाव पूर्ण बन सके ।

 

संगीत में विज्ञान

 वैज्ञानिक प्रगति से हमारी जीवन-गति में बहुत परिवर्तन हुआ। टी० बी०, रेडियो, वीडियो टेप रिकॉर्डर आदि से विभिन्न प्रकार के संगीत का प्रसारण होता ही रहता है। फलस्वरूप लोक और शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम सामान्य जन तक पहुँच चुके हैं। इससे संगीत का सामान्य ज्ञान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जन-समाज में बढ़ रहा है। किंतु जब विषय की दृष्टि से संगीत की व्याख्या करते हैं व शिक्षण के उद्देश्य से जब इसपर विचार करते हैं, तब यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि संगीत विषय में, विशेषकर शास्त्रीय संगीत की दृष्टि के कुछ उपलब्ध होता है, उसका संयोजन इतने प्रभावपूर्ण ढंग से किया जाए कि विद्यार्थी सहजता से उसे समझ सके, उसमें से बहुत-सा ज्ञान ले सके । अतः इस विषय पर प्रयोग किया गया कि संगीत में उपलब्ध सामग्री को शिक्षार्थियों के स्तर तक पहुँचाने के लिए किस प्रकार संयोजित किया जाए कि शिक्षण में उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े ।

     जिस प्रकार अन्य प्रायोगिक विषयों की अपनी प्रयोगशाला होती है, जिसमें अनेक प्रकार के उपकरण होते हैं तथा जिस तरह संज्ञातिक विषयों के लिए पुस्तकालय व्यवस्था होती है, संगीत विषय के लिए इस प्रकार की कोई समुचित व्यवस्था विद्यालयों में नहीं है। संगीत विषय का घंटा बहुत ही छोटा होता है और सामूहिक शिक्षण होता है, अतः विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए इस प्रकार की सहायक सामग्री विद्यालय में उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे उन्हें कक्षा शिक्षण के पश्चात् अतिरिक्त सहायता भी प्राप्त हो सके। इसी हेतु प्रस्तुत प्रयोग में संगीत की छात्राओं को विभिन्न प्रकार की दृश्य-श्रव्य सामग्री उपलब्ध कराकर उनके सोखने में प्रभाव को देखा गया।

     संपूर्ण हस्य-धन्य सामग्री को शिक्षण की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया गया १. से संबंधित दृश्य अन्य सामग्री, २. सांगीतिक ज्ञान से संबंधित दृश्य-श्रव्य सामग्री, ३. संगीत अभ्यास से संबंधित दृश्य श्रव्य सामग्री । प्रथम दो भागों को पर्ण रूप | विभक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि सांगी से तिक ज्ञान-संबंधी दृश्य-धन्य सामग्री सौंदर्याभू भी उत्पन्न करती है ।

     पिछले दो-तीन दशकों में स्कूली संगीतशिक्षण- परंपरा में कोई विशेष अंतर दृष्टिगत नहीं होता। मूल रूप से अनुकरण-पद्धति पर आधारित शिक्षा की यंत्रवत् पद्धति अरुचिकर और नीरस होती जा रही है । और, सामूहिक शिक्षण में विद्यार्थी इस शिक्षण से बहुत अधिक लाभान्वित भी नहीं हो पाते हैं । संगीत-जैसा सरस विषय सीखते हुए भी विद्यार्थियों में किसी प्रकार की राग-संबंधी सौंदर्यानुभूति उत्पन्न नहीं हो पा रही है । इसी कारण विषय को लगन से सीखने की रुचि भी उनमें कम रहती है ।' अतः सौंदर्यानुभूति-संबंधी सहायक सामग्री इसी उद्देश्य से विकसित की गई, जिससे छात्राओं में संगीत के प्रति रुचि उत्पन्न हो सके और अधिक सीखने की प्रेरणा मिल सके । कक्षा-शिक्षण में पाठ्यक्रम के रागों को बड़े सीमित रूप में सिखाया जाता है, जबकि अनेक प्रकार से छात्राओं के संगीत के ज्ञान क्षेत्र को विस्तृत कर पाठ्यक्रम के रागों को बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से सिखाया जा सकता है । स्कूली शिक्षण की सबसे बड़ी कमी है, सही अभ्यास-पद्धति का अभाव । सही ढंग से अभ्यास न करने पर गले पर जोर पड़ता है, थकान बढ़ती है और गायन से अरुचि-सी हो जाती है । अतः गायन के सही अभ्यास की जानकारी हेतु दृश्य-श्रव्य सामग्री विकसित की गई ।

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