KALA KA SAIDDHANTIK MAHATWA - TECHNO ART EDUCATION

Breaking

Sunday, October 9, 2022

KALA KA SAIDDHANTIK MAHATWA


कला का सैद्धांतिक महत्व

मानव के भावनाओं का सृजनात्मक रूप देना ही कला है, जबकि कला के ऊपर राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से व्याख्या किये हैं I कला हमारे समाज में विभिन्न प्रकार से परिभाषित की जाती है I इसका अर्थ यह नहीं कि हाथों द्वारा सृजित कला ही कला है अपितु कला का वास्तविक मतलब कलाकारों द्वारा बनाई वस्तु तथा प्रदर्शित भाव को ही कला कह सकते हैं I

पाश्चत्य सौंदर्यशास्त्रियों में क्रोंचे ने कला को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया है जो इस प्रकार है -

 

1. ललित कला

2. उपयोगी कला

     ललित कला एवं उपयोगी कला का वर्गीकरण कार्यों की प्रधानता पर करना अत्यधिक महत्वपूर्ण मन जायेगा । किन्तु यह विभाजन किसी कठोर सीमा रेखा को खींचकर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ललित कला और उपयोगी कला दोनों में सौन्दर्य विद्यमान रहता है परन्तु ललित कला अपने शुद्ध रूप में आनन्द प्रदान करती और उपयोगी कला में रूपाकृति की संरचना उपयोगी वस्तुओं की उपयोगिता के लिये की जाती है। उदाहरणार्थ- किसी कालीन की बनावट में बनी हुई कलाकृति कालीन की उपयोगिता में आड़े नहीं आती परन्तु एक जैसे- अनेक कालीन उपयोगी कला की ओर ही इशारा करते हैं। जब किसी मिट्टी के बर्तन या खिलौना हमारे भावनाओं को आकर्षित करने लगता है तब हम उसे पाने की हार्दिक इच्छा करने लगते हैं तब इसी कला को एक उपयोगी कला कहना यथार्थ लगने लगता है । इन कलाओं को हम उपयोगी कला ही कहेंगे I उपयोगी कला का मूल अर्थ यह मन जायेगा कि वह काल जो किसी व्यक्ति की क्षुधा तृप्ति में धन ग्रहण का माध्यम बने I क्योंकि वहाँ मौलिकता और सहज अभिव्यक्ति समाप्त हो जाती है। यदि कोई भी सृजनकार अपने कलात्मक हुनर से किसी रूपों का सृजन कर ले किन्तु उसे उसके आर्थिक महत्व को तवज्जो न दे यह असंभव है I  स्थूल आकृतियों की आवृत्ति ही व्यवसाय कहलाती है। अत: उपयोगी रूप कलाकृति कैसे मान सकते हैं, भले ही उनमें आकर्षण का गुण बना रहे। हमारी वास्तविक भावनाओं द्वारा सृजित कला ही एक रूपाकारों की प्रस्तुति होती है I

 

    विलियम मौरिस के कथन को प्रसिद्द कलाकार असित कुमार हल्दार ने अपनी पुस्तक "ललित कला की धारा" में उद्धृत किया है कि "कला दो प्रकार की होती है। एक तो वह जिसकी मनुष्य को आवश्यकता नहीं है, फिर भी उसका अस्तित्व है तथा दूसरे प्रकार की कला वह है जिसकी उत्पत्ति भौतिक आवश्यकताओं के कारण होती है। वह कला भी मानवीय आत्मा की लालसाओं से ही सम्बन्धित है।"

 

मनुष्य की अभिव्यक्ति को किसी रूप में प्रदर्शित करना कलात्मक वस्तुओं को इस दुनियां के सामने परोसना यह व्यवसायिक और सामाजिक प्रक्रिया है I उदाहरण के तौर हमारे घर और उसमें सजावटी सामान की उपलब्धता, खिलौने,  आभूषण एवं  बर्तन भी कला बानगी  हैं। चित्रकारों ने यहाँ चित्रकारी के अनुपम नमूने बनाए हैं, वहीं छोटी-छोटी चीजें जैसे- फर्नीचर, बर्तन, गुलदस्ते, कालीन पर्दे आदि को सजाने में भी अपनी योग्यता दिखाई है। इन कलाओं को भी "विष्णु धर्मोत्तर पुराण" में स्थान मिला है।  हम अभी तक सामान्य कला के बारे में चर्चा करते आरहे हैं परन्तु इसी कड़ी में वह कला जो समाज में स्वतः रूढिवादी नियमों से आवद्ध है उसे हम लोक कला या आदिवासी कला कहते हैं I इस कला में लोक संस्कृति और उनकी विशेष प्रकार के सिद्धांत ही अपनी सीमाओं में बंधी होती है जो  लोक कला है।

विलियम मौरिस मानते हैं  कि कलात्मक रचना के दो मूल तत्त्व हैं- डिजाइन तथा भावानुभूति। इनके बिना वस्तु या कलात्मक मूल्य नहीं रह जाता अपितु व्यावसायिकता तक ही सीमित रह जाता है। यह भी सत्य है कि व्यवसायी कला जनरुचि को प्रभावित करती है और ललित कला सामाजिक मनुष्य को कम आकर्षित कर पाती है। कलात्मक रचना प्रक्रिया में रचना का बीज सुख की प्राप्ति संतोष है। केवल बाह्य प्रभाव ही नहीं जाने कब-कब के प्रभाव किसी एक क्षण रचनाकार के लिये प्रेरणा बन जाते हैं। अतः जहाँ व्यावसायिक कला में उपभोक्ता की रुचि उपयोगिता निर्भर रहती है, वही ललित कलाओं का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है।

 

इन्हें क्रमश: "चारू" तथा "कारू" नामों से भी पुकारा गया है।

1. उपयोगी कला:- कोई मूर्तिकार जब किसी मूर्ति को बनाने में आनन्दमग्न होता

 है अर्थ प्राप्ति करता है तब वह उपयोगी कलाकृति बन जाती है।

2. ललित कला:- ललित कला अपनी शुद्धि में आनन्द प्रदान करती है। भारत वर्ष में ललित कला ही ज्यादा विख्यात है। कला निम्न पाँच प्रकार की होती है।

सही रूप से ललित काल को हम सैधांतिक रूप से मूलतः पांच प्रकार से वर्गीकृत करते हैं-

(क) मूर्तिकला (ख) चित्रकला (ग) वस्तुकला (घ) संगीतकला (ड.) काव्यकला

पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियों, विद्वानों तथा शिक्षाविदों ने मुख्यतः कला को  पाँच रूप में ही माना है । जिसे हम  स्थापत्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला और संगीतकला  एवं काव्यकला हैं।

3. मूर्तिकला:- स्थापत्य की अपेक्षा मूर्तिकला अधिक उन्नत कला है। इसमें रूप, रंग एवं आकार होता है। लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई भी होती है। यह वास्तुकला की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट है। क्योंकि इसमें साधन अपेक्षाकृत वास्तुकला से अधिक सूक्ष्म है। यह वास्तु कला की अपेक्षा उत्कृष्ट मनोभावों को व्यक्त कर सकती है और व्यक्त करती है। इसमें कलाकार के मनोभाव कल्पना के रंग से विशेष अनुरंजित होते हैं।

4. चित्रकलाः- वास्तु एवं मूर्तिकला की अपेक्षा चित्रकला अधिक उत्कृष्ट एवं सूक्ष्म कला है। यद्यपि वास्तु और मूर्तिकला के समान रूप, रंग और आकार इसमें भी होते हैं किन्तु इस कला के मान तीन लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई होकर केवल दो लम्बाई और चौड़ाई ही होते हैं। साधनों के माध्यम से त्रिआयाम की अनुभूति कराई जा सकती है। रंग तूलिका, लेखनी इसके साधन हैं। वास्तु एवं मूर्ति की अपेक्षा चित्रकला मनोभावों को अधिक स्पष्ट करती है।

5. वास्तु कलाः- वास्तुकला को स्थापत्य कला भी कहते हैं। इस कला के अन्तर्गत भवन-निर्माण, मन्दिर-मस्जिद, बाँध, पुल आदि के निर्माण का कार्य होता है। वास्तु कला के आधार-रूप में ईंट, पत्थर, सीमेन्ट, लोहा, लकड़ी आदि स्थूल हैं और साधन कन्नी, वसूली, फावड़ा आदि हैं। वास्तु कला में लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई तीन तत्त्व होते हैं। स्थापत्य कला द्वारा व्यक्त भावों की अपेक्षा अन्य कलाओं द्वारा व्यक्त भाव अधिक आकर्षक होते हैं। स्थूलता स्थापत्य कला की विशेषता है तथा सूक्ष्मता अन्य कलाओं की विशेषता है।

6. संगीत कला:- प्रथम तीन कलाओं की अपेक्षा संगीत कला अलग स्थान रखती है। इसका आधार नाद अथवा स्वर होता है। इस कला के द्वारा व्यक्त भाव अधिक सूक्ष्म और स्पष्ट होते हैं। संगीत कला का विशेषज्ञ अपनी कला से श्रोता को रुला भी सकता है। और ऐसा भी सकता है। इसमें पूर्वोक्त कलाओं की भाँति अनेक मान नहीं होते हैं। इसके प्रधान उपकरण स्वर और कर्णेन्द्रिय हैं।

7. काव्य कलाः- काव्य कला का स्थान ललित कलाओं में सर्वोत्कृष्ट है, इसके आधार शब्द और अर्थ हैं। जहाँ संगीत कला में केवल स्वरों का प्रयोग होता है, वहाँ काव्य कला में स्वर और व्यंजन दोनों ही प्रयुक्त होते हैं। संगीत-विशेषज्ञ एक-दो स्वरों के आरोह और अवरोह के द्वारा श्रोता को भावविभोर कर सकता है। किन्तु यह भाव विभोरता की स्थिति स्थायी नहीं होती है। जबकि कवि व्यंजनों और स्वरों के प्रयोग तथा उनके अर्थ के द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाल सकता है।

No comments:

Post a Comment