CHITRAKALA MEN SRIJNATMAK PRAKRIYA KYA HAI ? - TECHNO ART EDUCATION

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Wednesday, October 12, 2022

CHITRAKALA MEN SRIJNATMAK PRAKRIYA KYA HAI ?

 

चित्रकला में सृजनात्मक प्रक्रिया क्या है ?

    चित्रकला में सृजन का अर्थ भावपूर्ण रचना या निर्माण करने को ही हम सृजनात्मक प्रक्रिया कहते हैं है। कला सृजन मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है, जो मानव मन की विशेषता को व्यक्त करता है। इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति या कलाकार के अपने कल्पना या किसी विषय को रेखांकन, गढ़ कर  या ढाल कर किसी रूप को देना ही वास्तविक कला का सृजन कहलायेगा I सृजनात्मक प्रवृत्ति से मानव को आनंदानुभूति होती है, जिससे वह सुखद गुण की यथार्थ अनुभूति करता है । इस आनन्दानुभूति को व्यक्त करने के लिए वह निरन्तर प्रयत्न करना है। उसके इस प्रयत्नशील प्रवृत्ति से कलाकृति को नवीनतम स्वरूप प्रदान होता है। मानव ने सदैव अपने मनोभावों के द्वारा कला के माध्यम से सुन्दरतम परिवेश को व्यक्त करने का अथक प्रयास किया। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक मानव की उत्प्रेरित भावनाओं ने कला, साहित्य, विज्ञान इत्यादि विधाओं में अपनी विवेकशीलता को व्यक्त करने में सक्षमता प्रदान की है। कला आयामों को प्रबलतम रूपों से वर्णित करते हुए उसने अपने सहजतम भावों को प्रस्तुत किया है। कलाकार के सामने कोई भी कला हो या सृजन की बात हो वह उसे बनाने से पूर्व सर्वप्रथम उसका आकलन करता है उसके बाद ही वह कलाकर्म में अपना हाथ बांटता है I


    कलाकार किसी कला के चित्रण करने में वह कला के शाश्त्रीय ज्ञान जैसे षडंग-रूप, रंग, रेखा, पोत, माप और अन्तराल का ख्याल रखता है I कलाकृतियों में मौलिक विचारों को सृजित करने में तात्विक दृष्टि से साकार करने का अथक् प्रयास किया जाता है। कलाकृतियों का सृजन ईश्वरीय प्रेरणा से होता है। कला सृजन में कलाकार को ईश्वर की अलौकिक शक्ति प्रदान रहती है। वह अपनी इस अलौकिक क्षमता से कलाकृति में संवेगात्मक भावों को अत्यधिक सुदृढ़ करने का प्रयत्न करता है।

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते अपनी विचारों को कल्पना लोक में लेजाकर मूर्त और अमूर्त के सृजन में स्वतः लिप्त रहता है I कलाकृति की रचना प्रक्रिया में कलाकार की संवेदना उसकी मन की अभिव्यक्ति पर निर्भर करती है। कला का सृजन कलाकार के सृजनात्मक पहलुओं के माध्यम से उसके अनुभवों के आधार पर अभिव्यक्त होता है। मानव के मन मस्तिष्क में इस तरह की सृजन प्रवृत्तियाँ अनादिकाल से रही हैं। मानव की सहज प्रवृत्तियों में कला का आविर्भाव अधिकांशतः देखने को मिलता समाज के विकास में यह भी ये प्रक्रियाएँ अपनी सहजता से अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं। कला के प्रति लगाव सहज, सरल एवं नैसर्गिक तथ्यों के आधार पर अनुस्यूत होता है। कला के प्रति ज्ञान रंग एवं तूलिका से ही नहीं बल्कि सर्वांगीण विकास की दृष्टि से होना अनिवार्य है।

    कला सृजन हेतु मौलिक चिन्तन की प्रक्रियाएँ उसके कार्य रूप को साकार करती हैं। इस तरह की प्रक्रियाएँ उसके क्रियाशील प्रवृत्तियों के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। कलाकार के मन में सृजनात्मक भावों को जागृत होने में सौन्दर्य की प्रवृत्तियों की अनुभूति होती है। कलाकार अपनी कला साधना में मन, मस्तिष्क एवं ज्ञान के आधार पर कलाकृति को विकसित करता है। इससे कलाकार की आत्मिक सौन्दर्यावृत्ति की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। कला में आत्मिक पक्ष को निष्ठावान बनाये रखने हेतु मन की स्थिति को भी संतुलित करने का प्रयास रहता है। मनोवैज्ञानिक छवि से कलाकार के मन व मस्तिष्क में सृजन प्रवृत्तियों की प्रक्रियाएँ जागृत होती हैं, जिनमे - 1. दृष्टि से आँकलन की प्रक्रिया। 2. सौन्दर्यमूलक वस्तुओं की अनुभूति । 3. मन, मस्तिष्क में काल्पनिक योजना। 4. मौलिक सृजन की अभिव्यक्ति ।


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