भारतीय हस्तकलाएँ और हमारा समाज :
हमारे देश में
कला का बहुत महत्व है I यूं कहें तो कला शिल्प हमारे जीवन की विभिन्न धाराओं में
प्रदर्शित होती हैं I भारत में यहाँ इनके विभिन्न स्वरुप हैं। भारतीय प्रांतीय
क्षेत्रों में धर्म की पराकाष्ठा से ओत प्रोत कलाकारों
की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति ही कला के रूप में देखने को मिलता है I स्थानीय व्यवस्था
एवं उपलब्धता के अनुरूप पूजा और अनुष्ठान किया जाता है I इन शिल्पों में धार्मिक मान्यता, पूजा विधान, सामाजिक रहन सहन, आस्था विश्वास
एवं आवश्यकता झलकती है। उसी के अनुरूप, वहाँ पर हस्तशिल्पों का सृजन होता है।
हस्तशिल्प कलाओं के अन्तर्गत वस्त्रकला, आभूषण कला, पात्रकला, मूर्तिकला, खिलौने, लोककला, पारम्परिक चित्रण कला, बिछावन कला, बाँस-बेंत
शिल्पकला, डलिया-टोकरी कला, अस्त्र-शस्त्र, वाद्य यन्त्र कला एवं साज-सामान आदि आते हैं। वस्तुतः इस कला का तात्पर्य
हाथ से बनी कला से है जो दक्षता, कौशल एवं निपुणता पर आधारित शिल्पकर्म
होता है और परम्परागत रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती है। यह शिल्पकार्य निर्माण
करने वाले दस्तकार, शिल्पकार, चित्रकार, मूर्तिकार, बुनकर, कारीगर एवं घरेलू स्त्रियाँ, बच्चे भी होते हैं।
भारत के
विभिन्न राज्यों में विकसित हस्तशिल्प कला के प्रायः घरेलू तथा व्यवसायिक दो रूप मानी
गई है । इन्हें घरों, कुटीर उद्योग एवं संकुलों में तैयार किया जाता है। यह कलाएँ व्यक्तिवादी, जैसे मेहंदी, महावर, अंगालेखन, श्रृंगार, आभूषण एवं
वस्त्रालंकरण आदि उपयोगी, जैसे- साज-सामान (फर्नीचर), डलिया, चटाई, दरी, गलीचा, कालीन बिछावन एवं थैला आदि । अनुष्ठानिक, जैसे- चौक, वेदी-रचना, पारम्परिक
आकल्पन, मनौती शिल्प एवं लोक चित्रण आदि सजावटी, जैसे भू-भित्ति अलंकरण, चित्र, द्वार लटकन, भित्ति लटकन
एवं वंदनवार आदि। मनोविनोदार्थ, जैसे—– गुड़िया गुड्डा, घरौंदा, गुट्टा, टेसू-झझियाँ
आदि होती हैं। हस्तकलाओं के विविध रूपों की अनेक शैली एवं विभिन्न शाखाएँ हैं। ये
मुख्य-मुख्य रूप से लोक, जनजातीय एवं पारम्परिक शैली में निर्मित की जाती है।
समाज में हस्तकलाएँ :
लोक संस्कृति
की अनुपम मिश्रण हमें समाज में देखने को मिलती है I हस्तकलाएँ समाज के उद्देश्य
पूर्ति के लिए निर्मित की जाती हैं। यह कलाएँ सामाजिक तथ्यों के प्रति सदैव से
उत्तरदायी रही हैं तथा इनमें समाज की इच्छाओं की अभिव्यक्ति होती है। इन कलाओं में
लोक की सहजता का भाव छिपा रहता है। लोक कला के रूप में सृजित शिल्पकर्म को समाज में
सौंदर्य एवं विस्वास के लिए अपनाया जाता है I यह सामाजिकता के बन्धन में बंधी होने
के पश्चात् भी नियमों में स्वतन्त्र होती हैं। इन कलाओं में स्थानीयता, अंचलता, जातीयता एवं
राष्ट्रीयता के तत्व समाहित रहते हैं। यह कला लोक जनों के इर्द-गिर्द घूमती रहती
है अपितु इसे समझने के लिए लोक विधाओं एवं लोक संस्कृति अर्थात् लोककला, लोक विश्वास, लोक साहित्य, लोक परम्परा, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक वेशभूषा, लोक रीतियाँ, संस्कार एवं
त्योहार पर्वो आदि को समझना अति आवश्यक हो जाता है जो प्राचीन काल से समाज में
प्रचलित है। इस लोक जीवन में अनेक प्रकार के शिल्पों का प्रयोग होता है। ऐसी
स्थिति में हस्त शिल्पकलाएँ और समाज एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं।
लोक अर्थात्
ग्रामीण अथवा नगरीय समुदाय इस कला के सदैव से पोषक रहे हैं। वह इस कला को सदैव
महत्त्व प्रदान करते हैं। उच्च कुलीन परिवार भी इसे खूब पसन्द करते हैं और इन्हें
संग्रहणीय रूप में देखते हैं। एक प्रकार से कम शिक्षित समुदाय अथवा उन्नत समाज
दोनों ही एक समान रूप से हस्तशिल्प कलाओं के प्रति अपनी रुचि का प्रदर्शन करते
हैं। इस प्रकार से देखा जाय तो हस्तशिल्पकला सामूहिक विकास का परिणाम है। जिस
प्रकार समाज के विकास की स्थिति बनती है, उसी प्रकार सामाजिक धारा बहने लगती है।
भारतीय समाज धर्मशास्त्रों को आधार मान कर उनके द्वारा कथित तथा अंकित निर्देशों
को शिल्प्कर्मी उसमें विषयानुरूप सृजित करते हैं I यहाँ ध्यान देने योग्य है कि
सामाजिक विकास तथा सामाजिक आन्दोलनों के प्रत्येक चरणों का आपस में गहरा व आन्तरिक
सम्बन्ध रहा है और इन हस्तशिल्प कलाओं का विकास भी समाज की आवश्यकता एवं
गतिविधियों के अनुरूप हुआ है। वर्षों से समाज और हस्तशिल्प कलाएँ एक-दूसरे के पूरक
रूप में प्रस्तुत होती रही हैं। अल्पना बंगाल की लोक कला है तो चोकपूरन उत्तरप्रदेश,
पाबूजी का फड़ राजस्थान की तो डंडिया गुजरात की, कोलम कर्नाटक की तो मधुबनी पेंटिंग
बिहार तथा मञ्जूषा कला, सिक्की कला आदि भी पूर्वोत्तर भारत की लोक व शिल्प कलाएँ
हैं I
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