मध्यकालीन स्थापत्य में इस्लामिक कला Islamic Art of India - TECHNO ART EDUCATION

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Monday, October 31, 2022

मध्यकालीन स्थापत्य में इस्लामिक कला Islamic Art of India

 

मध्यकालीन स्थापत्य में इस्लामिक कला

(13वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक)

 

भारतीय इतिहास में राजा-महाराजाओं के बाद जो दौर आया वह बिलकुल ही बदला हुआ और भारतीय संस्कृति में सेंध मारनेवाला युग था | इसी में हम उन शासकों का बात करेंगे जो तेरहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक अपनाराज किया | जो राजवंशों ने अपनी भूमिका को भारत में प्रदर्शित की वो खास तौर से पांच थे |

दिल्ली के पाँच मुस्लिम राजवंशों के शासन काल में भारत में विकसित होने वाले भवनों को सम्मिलित रूप से 'सल्तनत वास्तु' का नाम दिया जाता है, क्योंकि इस काल में निर्मित होने वाले भवनों का आकार-प्रकार तथा रचना शैली विशिष्ट प्रकार की है। इस काल में इस्लाम धर्म के अनुयायियों की आवश्यकता के अनुसार मस्जिदों और मकबरों का निर्माण व्यापक रूप से किया गया।

इस प्रकार भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना के साथ ही कला के क्षेत्र में भी अनेक परिवर्तन हुए। वास्तुकला के क्षेत्र में मुसलमानों के साथ आई अनेक वैज्ञानिक एवं तकनीकी पद्धतियों का प्रयोग भी प्रारम्भ हुआ। इस समय की सम्पूर्ण कला पर यदि एक विहंगम दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि जिस प्रकार की वास्तु शैली इस समय समस्त भारत में प्रचलित रही, उसने एक 'हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली के रूप में विकास पाया जिसमें भारतीय वास्तु के तत्त्व पूर्णतया घुल-मिल गये थे।

अतः इस्लामी शासन काल में जो वास्तु-कला विकसित हुई उसे पर्सी ब्राउन ने 'इण्डो-इस्लामिक' (भारतीय इस्लामी) नामकरण देना सर्वथा उपयुक्त समझा है जबकि विन्सेन्ट स्मिथ ने इसे इण्डियन मुस्लिम (भारतीय मुस्लिम कला) नाम दिया है।

मुसलमानों ने वस्तुतः 12वीं शताब्दी तक अपनी धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं अनुरूप कुछ विशिष्ट वास्तु रूपों एवं परम्पराओं को विकसित कर लिया था। इसके के अन्तर्गत इन्होंने बाइजेण्टाइन, फारसी तथा पूर्व की बौद्ध कला एवं तकनीकी अनुभवों को पूर्णतया उपयोग में लाने का प्रयास किया है। इस प्रकार यह नवीन कला किसी धार्मिक वर्ग विशेष के प्रयत्नों का प्रतिफल न होकर ऐसी मिश्रित कला थी जिसके विशिष्ट बाह्य रूपों की रचना प्रत्यक्षतः 'अभारतीय मूल की थी किन्तु भारत में इनके निर्माण की प्रक्रिया में तुर्कों के साथ आये कला-विषयक ज्ञान और अनुभव के साथ-साथ भारतीय कलाकारों का उल्लेखनीय योगदान रहा।

भारत में सल्तनत वास्तु का प्रारम्भ मोटे तौर पर 1200 ई. से माना जा सकता है। भारत में इस नवीन वास्तु के प्राचीनतम स्मारकों को कुतुबुद्दीन ऐबक तथा इल्तुतमिश के शासनकाल से माना जा सकता है। इस काल की प्रमुख इमारतों में- दिल्ली की कुतुब मस्जिद व मीनार, बदायूँ की मुख्य मस्जिद, इल्तुतमिश का मकबरा व अजमेर की मस्जिद उल्लेखनीय हैं।

 

भारतीय इस्लामी वास्तु का स्वरूप

 

    मुसलमानों के भारत आगमन के पश्चात् उनके द्वारा बनवाई गई भवनों की आकृतियाँ परम्परागत भारतीय वास्तु संरचनाओं से सर्वथा पृथक थीं। नुकीली छतों तथा शिखराकार हिन्दू तत्त्वों के स्थान पर अब गुम्बद का प्रयोग होने लगा था। पिरामिडीय आकार से अण्डाकार आकृतियों का रूप निर्माण इस काल की वास्तुकला की एक अन्य विशेषता थी।मन्दिर में गर्भगृह व पवित्र कक्ष (देवस्थान) का विशेष महत्त्व होता है जबकि मस्जिद में खुला आँगन व उसके अनेक द्वार भवन के खुलेपन का आभास देते हैं भारतीय वास्तुकला में 'ट्राबिएट' शैली के अनुसार भवन की छतों को तिरछी धरनों (बीम्स) द्वारा भरा जाता था जबकि मुस्लिम भवनों में आर्क्यूएट' शैली के अनुसार रिक्त स्थानों में मेहराबों के प्रयोग द्वारा छत को आधार प्रदान किया जाता था। मेहराबों के निर्माण में व्यापक रूप से 'गारे व मसाले' का प्रयोग किया जाता था । पर्सी ब्राउन का मानना है कि कुछ मुस्लिम मेहराबों को प्राचीन बौद्ध चैत्यों के सूर्य द्वार अथवा गवाक्ष की परम्परा के अनुरूप बनाये गये हैं। कुतुब मस्जिद (दिल्ली) में सर्वप्रथम इस विशिष्ट मेहराब को बनाया गया जिस पर सर्प बेल का अंकन भी किया गया है। अतः इस काल के अधिकांश भवनों की साज-सज्जा में भारतीयता की स्पष्ट झलक दिखाई देती है।

 

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