कला
अध्यापक शिक्षण एवं जिम्मेवारियाँ
शिक्षा प्रगतिशील समाज की एक पहचान है जिससे हम मानव प्राणी किसी विशेष गुरू के प्रयोजन व व्यवस्था आदि के सहयोग से कुछ सीख पाने की योग्यता रखते हैं। छात्र अध्यापक के कार्य योजना एवं व्यक्तित्व को अपने ध्यान में रखकर उनसे कुछ सीख पाता है जो कि बौद्धिक, मानसिक शिक्षा के विकास में संवाहक होती है। उसी संदर्भ में हम शिक्षक के गुणात्मकता एवं उनके उत्तरदायित्व की चर्चा इस प्रकरण में करेंगे। अधिगमकर्ता शिक्षक के गुण, उनके आचरण, व्यक्तित्व व आदर्श को स्वतः अपनाता है। यह प्रक्रिया उसके ज्ञान की पूर्णता तक एक दूसरे को बाँधे रहती है। कला शिक्षण एवं अध्यापक के उत्तरदायित्व के बारे में ऐसा कहा गया है कि यदि छात्रों को अच्छी शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती तो उनके विचार व्यवहार में अभद्रता, अकुषलता, सठ आदि की प्रवृति का निरूपण हो जाता है। इसके फलस्वरूप एक अच्छे समाज विनाशकारी भविष्य की ओर गोचर होने लगता है। कला अध्यापन में एक शिक्षक को उसके विषय, क्षेत्र, संसाधन तथा व्यवहारिक पक्ष की ओर अत्यधिक बल देना चाहिए। कला शिक्षण में जिन गुणों एवं कौशलता की आवश्यकता होती हैं उसकी चर्चा भी करना अतिआवश्यक है।
कला शिक्षक के कौशल एवं विशेषताऐं
विद्यालयी विषयों का
ज्ञान छात्रों को विषय की गहराईयों, भाषा एवं इतिहास के
क्षेत्र को बताता है परन्तु कला छात्र के चहुँमुखी विकास को प्रदर्शित करता है।
कला गूंगा-बहरा, अंधे को भी अपनी ओर
आकर्षित करता है यद्यपि, भाषा का ज्ञान प्राप्त
करना इस तरह के व्यक्तियों को जटिलता का अनुभव करवाता है। सफल कला अध्यापक में यह
गुण होना आवश्यक है कि वह कम उम्र के बच्चों को सीखनें में दक्षता का प्रदर्शन करे
क्योंकि छोटे उम्र के बच्चों में किसी भी चीज का अनुकरण करनें में बड़ों की अपेक्षा
अधिक क्षमता होती है। इसलिए विद्यालयी शिक्षा में कला, संगीत, खेल-कूद आदि के अध्यापन की आवश्यकताओं को सुनिश्चित
किया गया है। शिक्षक को बच्चों में मानसिक व बौद्धिक विकास के साथ सृजनात्मकता पर
विषेष बल देकर कला कौशलों को विकसित करना चाहिए जिससे विषयों के ज्ञान के साथ कला
सृजन की भी अभिवृद्धि हो सके।
अतः कला शिक्षकों में
विभिन्न प्रकार के गुणों एवं जिम्मेवारियों का होना आवष्यक है जो निम्नलिखित हैं-
1. अपने विषय एवं कला कौशलों का समुचित ज्ञान- कला के अध्यापक को अपने विषय का पूरा ज्ञान होना चाहिए। कला के संबंधित क्षेत्र जैसे- संस्कृति, रिवाज आदि के साथ विद्यालयी विषय यथा भाषा, विज्ञान, गणित, समाजषास्त्र, इतिहास, भूगोल इत्यादि भी पढ़ी होनी चाहिए। यद्यपि कोई भी कला शिक्षक माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक स्तर तक सभी विद्यालयी विषयों को कक्षा अंतर्गत पढ़ते हैं। कला की उपाधि या डिग्री प्राप्त करने से पूर्व उपरोक्त विषयों का ज्ञान होना आवश्यक माना गया है। इसी संदर्भ में कला-कौशलों का ज्ञान यह प्रमाणित करता है कि कला शिक्षक को किसी विधा जैसे- संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, हस्तकला आदि के शिक्षक हैं तो उन्हें अपनी कला के अनुरूप उस विषय क्षेत्र में कौशल तकनीक का पूर्णतः ज्ञान अर्जित कर लेने के उपरान्त ही बच्चों को प्रशिक्षण दें। उदाहराणार्थ- यदि चित्रकला के शिक्षक हैं तो गाय और बैल के आलेखन करने पर दोनों के शारीरिक बनावट का सही ज्ञान होना चाहिए अन्यथा अंतर नहीं दिखाने पर एक समान लगेंगे जो अकुशल अभ्यास व कौशल विहीन शिक्षक का कार्य होगा।
2. अध्यापक में व्यक्तिगत कला निरीक्षण की क्षमता- शिक्षक केवल पढ़ाने-लिखवाने में ही अपनी रूचि रखें तो यह अशोभनीय कार्य होगा। कला शिक्षण के दौरान विद्यार्थी क्या बना रहा है ? कौन सा साधन का प्रयोग कर रहा है ? उचित संसाधन है या नहीं ? इन सभी बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यह एक आदर्श शिक्षक का व्यक्तिगत गुण कहलाएगा जिसके प्रभाव से कला शिक्षार्थी अध्यापक के प्रति विश्वास करने लगते हैं तथा उन्हें अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं।
3. बालकों को प्रोत्साहित करने की क्षमता- कला शिक्षक का यह दायित्व होना चाहिए कि समय-समय पर होने वाले कला कार्य, सांस्कृतिक कार्यक्रम, संगोष्ठी, आदि की जानकारी देनी चाहिए। इससे बच्चों में कार्य करने के प्रति उल्लास पैदा होती है। साथ ही कला में उतरोत्तर विकास दिखाई देने लगता है।
4. कार्यक्रम
की योजना बनाने में दक्ष होना- किसी कार्यक्रम को कितना अच्छा और किस ढंग से प्रदर्शित किया
जाए इसका पूर्ण अनुभव कला के अध्यापक को होना आवश्यक है। चाहे वह कला रंगमंचीय हो
या दृश्यकला ही क्यों न हो इसमें सौन्दर्यानुभूति का होना ही सफल कला शिक्षक की
जिम्मेवारी है। कला में लालित्य ही कला की सौन्दर्यात्मक स्वरूप है जिसे कला और
कलाकार दोनों को बखूबी निभाना पड़ता है। इस कार्य से शिक्षक एवं छात्र दोनों को
आत्म संतुष्टि व आनन्द की अनुभूति होती है।
5. शिक्षा
सहगामी गतिविधियों में भागीदारी- यह वह कार्य है जिससे अधिगमकर्ता को विषय तथा विषयांतर से हटकर
ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति का बोध कराया जाता
है। कला शिक्षण से छात्र व शिक्षक के बीच एक गुणात्मक और भावात्मक संबंध स्थापित
होते हैं। इसके अध्ययन से बच्चों में मानसिक, सामाजिक एवं व्यवहारिक ज्ञान की
प्रतिपूर्ति होती है। कला के अध्ययन से बच्चों में समाजिकता, अनुशासन व चरित्र का निर्माण होता है
जिससे एक व्यवहारिक पक्ष का गुण उनके मन में आ जाता है। अध्यापन में कला शिक्षण को
सशक्त बनाने के लिए पाठ्य सहगामी गतिविधि के साथ शिक्षक को उनके रोजमर्रा की जीवन शैली
जैसे- सांस्कृतिक कार्यक्रम, चित्रकला व संगीत
प्रतियोगिता, नृत्य, मेला, प्रदर्शनी ऐतिहासिक व विरासत संबंधी
जानकारी के लिए शैक्षणिक भ्रमण, संग्रहालयों के अंदर ले
जाकर पुरातत्व एवं इतिहास का परिचय करवाना आदि गतिविधि पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
इससे बच्चों में बौद्धिक एवं व्यवहारिक ज्ञान का विकास स्वतः विकसित होने लगता है।
अतः शिक्षक को विभिन्न प्रकार की क्रियाकलापों पर छात्रों का विशेष ध्यान आकर्षित करवाना चाहिए जिससे संस्थान व विद्यालय गरिमा
में निरंतर वृद्धि होती रहे।
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